________________
१२४
पाण्डव-पुराण ।
दोनोके योगसे रंजित पांडु जो कुछ भी सुख-लाभ कर सका है वह सव पुण्यका ही परिणाम है। और सखी, यह भी तो बताओ कि इन दोनोंने भी पूर्वभव कौनसा अपूर्व पुण्य कमाया था, जिसके फलसे इन्होंने ऐसा इन्द्र जैसी विभूति- : वाला और विचक्षण योग्य वर पाया है। इन्होंने सुपात्रके लिये दान दिया है या घोर तपस्या की है। बड़े भक्तिभावसे श्रीगुरुकी सेवा की है या जिन चैत्यालयमें जा जिनेन्द्रदेवकी पूजा की है अथवा शुभ इच्छासे इन्होंने उत्तम पुरुषोंकी सेवा-श्रुश्रूषा की है । इन उत्तम कामों से इन्होंने अवश्य ही कोई काम किया है, नहीं तो उन्हें ऐसा योग्य वर कभी भी नहीं मिल सकता था । पूर्ण चंद्रकी नॉई स्वच्छ और मंडालाकार पांडका छत्र ऐसा जान पड़ता है कि मानों पिंडरूपमें इकट्ठा हुआ उसका यश ही है और छत्रके, वहानेसे उसकी शोभा बढ़ाता है। इस महोदय राजाने शस्त्रोंके तीव्र प्रहार द्वारा पापिष्ट वरियोंके खंड कर कर दिये है । इसके समान वली राजा और कोई नहीं है। इस तरहसे भेंट दे-दे कर लोगोंने पांडुकी खूब स्तुति-भक्ति की।
इसके बाद कुछ देरमें प्रबल प्रतापी पांडुकुमार तो अपने सुन्दर महलमें चला गया और उन दोनों पुत्रवधुओंका, व्यासने अपने मंदिरके पास ही, पूर्ण सम्पत्तिशाली और धुजाओंसे सुशोभित एक महलमें निवास कराया। वाद वह भोगी पांडु पंडित भी उन दोनों प्रियायोंके साथ सुखसे. रमता हुआ वहीं रहने लगा। सच है कि जिसका पुण्य प्रवल होता है उसे किसी भी वातकी कमी नहीं रहती । कुन्तीके कुचोंके स्पर्शसे और उसके मुख-कमलके पानसे पांडुको वड़ी प्रसन्नता हुई, जैसे , मनचाही चीजको पाकर प्रेमी पुरुषोंको प्रीति होती है । उसके सुगंधित मुख कमलको सूंघ कर पांडुकी तृप्ति ही नहीं होती थी; जिस तरह कि कमलकी सुगन्धसे भौरे तृप्त नहीं होते । सच है कि कामसेवनसे किसीको भी सन्तोष नहीं होता। कुन्तीने कटाक्षमय दृष्टिपालसे, मनोहर मुसक्यानसे, मीठी बोल-चालसे और अपने सौंदर्यसे उसका मन विल्कुल अपनी तरफ खींच लिया; अपनेमें बाँध लिया । उस मनस्विनीने उसके मनको अपने अनुपम सौंदर्यसे और कामके पासकी नॉई अपनी दोनों भुजाओंसे उसके गलेको खूब मजबूत बॉध लिया । वह उसे अपने प्राण ही समझने लगी। पांडुने भी उसके साथ काम-सुख भोगते भोगते उसके कोमल हाथों में स्पर्शका, मुख-कमलमें सुगन्धका, बोल-चालमें मनोहर शब्दोंका और उसके शरीरमें मनोहर रूपका जैसा कुछ अनुभव किया और जैसा इन्द्रियोंके सुखोंको