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________________ २३० पाण्डव-पुराण। हुए उसे पिशाचको भी कर चैन पड़नेवाली थी, अतः वह भी भीमके ऊपर झपट रहा था। भीम उसका भी प्रतिकार करता जाता था। उसे गिरा कर भीमने पहले के जैसा ही उसे जमीन पर गिर पड़ने पर न छोड़ दिया; किन्तु उसकी पीठके ऊपर अपना पॉत्र पूरी तौरसे जमा रक्खा । एवं क्षणभरमें उसने उस विद्याधरका भी मान-मद चूर डाला, जिससे वह निर्बल बड़ा दुःखी हुआ। उसका शरीर कॉपने लगा। इसके बाद उसने भीमको प्रणाम कर उससे अपने अपराधकी क्षमा कराई और उससे कितने ही गुणोंनो ग्रहण करके वह विद्याको सिद्ध कर अपने घर चला गया । इतनेमें युधिष्ठिर जाग उठे और उन्होंने भीमसेनके द्वारा हिडम्बाका पाणिग्रहण करवा दिया। इसके बाद युधिष्ठिर आदि पांडव बहुत दिनों तक वहीं रहे । भीमने हिडम्बाके साथ खूब ही सुख भोगा । भीमके साथ भोग भोगती हुई हिडम्बा गर्भवती हो गई । और गर्यके दिन पूरे हो जाने पर उसने जगत्प्रसिद्ध पराक्रमवाले पुत्र-रत्नको जन्म दिया। पुन-जन्मसे सबको बड़ा आनन्द हुआ । उसका नाम घुटुक रक्खा गया । घुटुक सब लक्षणोंसे लक्षित था, अतः उसकी बहुत जल्दी संसारमें प्रसिद्धि हो गई। इसके बाद पांडव वहॉसे चले और भीम नामके एक भयानक जंगलों आये, जो सिंह आदि हिंसक जन्तुओंसे परिपूर्ण था । यहॉ एक भीमासुर नाम देव था । वह बहुत ही प्रसिद्ध था, दुष्ट या, दुर्द्धर था, जीवोंको दुःख देनेवाला था तथा उसके भुजदंडोंमें पूर्ण बल था । वह इन्हें चनमें आया देख कर मेघकी नाँई गर्ज कर अपने स्थानसे निकला और इनके पास आकर कहने लगा कि तुम लोग यहाँ किस लिए आये । क्या तुम लोग मेरे इस पवित्र वनको अपवित्र बना देनेकी इच्छासे यहाँ आये हो । नहीं तो तुम्ही बताओ कि तुम्हारे यहाँ आनेका दूसरा और कारण ही क्या है ? मैं जानता हूँ कि ऐसी सामर्थ्य किसी मनुष्यों नहीं है जो मेरे इस पवित्र वनमें आवे और अपने पाँवोंकी धूलसे इसे अपवित्र करे । फिर तुम लोगोंने यहाँ आकर इसे क्यों अपवित्र किया ? उस भीमासुरको ऐसी बेढब बातें करते हुए देख कर विचक्षण भीमने कहा कि तू व्यर्थ ही मेंडककी नॉई या गाल फुलानेवाले दुष्ट पुरुषकी नाई क्यों गर्जता है और खेदखिन्न होता है । तू हमें अपवित्र बता कर आप पवित्र वनना चाहता है, यह तेरा झूठा अभिमान है । हम अपवित्र नहीं हैं किन्तु बड़े पवित्र हैं। हम सदाचारी हैं, जैसे कि चक्रवर्ती वगैरह होते हैं । वात यह है कि मनुष्य
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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