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________________ पाण्डव-पुराण। नहीं है, अतः आप लौट जाइए । उत्तरमें उसने कहा कि प्रद्युम्न यह न कहो, मैं क्षत्रिय हूँ वापिस नहीं लौट सकता । क्योंकि वे ही सचे सेवक कहाते हैं जो जी-जानसे स्वामीके कार्यमें काम आते हैं । इस लिए बीर, तुम कुछ ख्याल न करके धनुष संधान करो । अन्तमें लाचार हो प्रद्युम्नने प्रज्ञप्ति विद्याको छोड़ कर उसी समय कालसंवरको वॉध लिया और शत्रु-दलके योद्धाओं के साथ युद्ध करते हुए उसे अपने स्थमें बैठा लिया। यह देख शल्य विद्याधर प्रद्युम्नके साथ युद्ध करनेको उद्यत होकर आया । प्रद्युम्नने उसे आते ही अपने तीक्ष्ण बाणों के द्वारा उसके रथको छेद डाला । तव वह दूसरे रथ पर सवार होकर उसके साथ घोर संग्राम करने लगा। इसी वीचमें प्रधुम्न के साथ युद्ध करनेके लिए शिशुपाल राजाका छोटा भाई तैयार हुआ और उसने प्रबुन्न पर एक ऐसा वाण छोड़ा जिससे वह मूर्छित होकर वे-सुध हो गया। फिर क्या था, अवसर पाकर उसने शत्रुका ध्वंस करनेवाले वाणोंके द्वारा प्रद्युन्नका रथ भी तोड़ ताड़ डाला । यह देख प्रद्युम्नका सारथी बड़ा डरा और उसने भागना चाहा; परन्तु इसी समय प्रद्युम्नने होशमें आकर सारथीसे कहा कि यह क्या करने हो! युद्ध-स्थलसे भागनेका विचार भी किया तो देवतों मनुष्य, विद्याधर, पांडव, समुद्रविजय आदि यादवों और खास कर कृष्ण, बलभद्र के आगे बड़ा लज्जित होना पड़ेगासिर उठाना मुश्किल पड़ जायगा । फिर इस दुःखदायी और अशुचि शरीरसे बन ही क्या पड़ेगा और रसीले आहारसे पोपे गये इससे लाभ ही क्या होगा। यह कह कर शीघ्र है। प्रद्युम्न दूसरे रथ पर सवार हो युद्ध के लिए उठ खड़ा हुआ। फिर क्या था, वे दोनों ही युद्ध-कुशल योद्धा युद्ध करने लगे । उनको युद्ध करते देख कर कृष्णके मनमें भी कुछ लोभ पैदा हो उठा और वह उन दोनोंके वीचमें आ गया । तब जरासंधकी पक्षका शल्य नाम विद्याधर यह कहता हुआ युद्ध-स्थलमै उतरा कि मैं इन उद्धत शत्रुओंको अपने बाण-प्रहारसे अभी धराशायी किये देता हूँ। ये अब जीवित नहीं रह सकते। इसके बाद उसने थोड़ी ही देरमें अपने बाणोंसे सारा आकाश ढेंक दिया और इसी कारण उस वक्त किसीको भी न नारायण देख पड़ता था और न उसका रथ तथा सारथी ही देख पड़ते थे। देख पड़ता था तो सिर्फ शरोंके बीचमें कृष्ण फँसा हुआ सा देख पड़ता था, उसके जीवितमें भी लोगोंको संशय होता था और यही उसके सारथीकी भी हालत थी। - इसी बीच में वहाँ एक मनुष्य आया जो मायामय था, रुधिरसे जिसका शरीर लाल हो रहा था और जो थर-थर कॉप रहा था। उसने आकर
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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