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________________ treat अध्याय | ३१३ ^^^^^^^^^^^^^^^^^ बहुत से राजों से घिरे हुए कृष्ण से कहा कि कृष्ण, तुम व्यर्थ ही क्यों युद्ध करते हो । उधर जरासंधने पांडव, यादव और बलभद्रका काम तमाम कर दिया है । इतना ही नहीं, किन्तु उसने और और रणशौंडीरोंको भी कालके गाल में पहुँचा दिया है, तुम्हारी द्वारिका पुरी पर भी अधिकार जमा लिया है और द्वारिका में सुखासीन समुद्रविजयको भी रणका आतिथ्य देकर यमालयका अतिथि बना दिया है । फिर नाथ, आप भी यहॉ व्यर्थ अपने प्राण क्यों गवाते हैं ! अतः यदि आपको सुखी होनेकी वाञ्छा हो तो आप रण-स्थल छोड़ कर चले जाइए | उस माया-मय पुरुष के इस प्रकार के वाक्योंको सुन कर कृष्णको बढ़ा क्रोध आया । वह बोला कि दुष्ट, मेरे जीते रहते हुए ऐसी शक्ति किस पुरुषमें है जो यादवको यमालयका अतिथि बनाये ! कृष्णके ऐसे विकट वचनोंको सुन कर वह दुष्ट बुद्धि-माया-मय पुरुष उसी समय वहॉसे भाग गया । और कृष्ण हाथमें धनुष उठा कर शत्रुओंकी ओर चला। रास्तेमें कृष्णको एक निशाचर मिला, जिसे देख कर बड़ा भय लगता था। वह कृष्ण से वोला कि कृष्ण, तुम तो यहाँ युद्ध करते हो और उधर वसुदेव युद्धमें मारा गया है। उसके बिना सारे विद्याधर युद्धस्थल से चले जाने को तैयार हो रहे हैं । यह कह कर छलसे उसने कृष्ण पर वृक्षवाण छोड़ा, जिसको विष्णुने अग्नि-वाणके द्वारा उसी वक्त जला दिया। इसके बाद उस विद्याधरने पत्त्थरोंको गिरानेवाला क्ष्माभृत् वाण छोड़ा और हरिने उसे वज्रवाणसे वारण कर दिया । आखिर कृष्णके सामने वह विद्याधर न ठहर सका और भाग गया । यह देख उस वक्त नर, सुर आदि सबने कृष्णकी मुक्त कंठसे प्रशंसा की । इसी समय उस विद्याधरने आकर जो पहले निशाचरके रूपमें था, कृष्णको प्रणाम करके कहा कि नरेन्द्र, जब तक मैं इस विद्याधरके साथ युद्ध करता हूँ तब तक आप उधर जाकर अपने चक्र के द्वारा जरासिंधका सिर छेद डालिए और संसार में अपना यश विस्तृत कीजिए । व्यर्थ ही औरों को मारनेसे क्या होगा । यह सुन कर क्रोधमें आ कृष्णने कहा कि इस महायुद्ध में जब तक मैं इसे न जीत लूँगा तब तक कैसे तो जरासंघ जीता जायगा और कैसे पृथ्वी भोगी जा सकेगी । यह कह कर हरिने शल्य के साथ साथ उस विद्याधरको भी दो ट्रैक करके प्राण रहित कर दिया, जिससे कि वह उसी समय धराशायी हो गया । इसके साथ ही मधुसूदनके हाथमें जय लक्ष्मी आ गई और उसके सब विघ्न नष्ट हो गये । इस समय उसके ऊपर देवतोंने पुष्पोंकी बरसा की । ~) पाण्डव-पुराण ४० ን ^^ ^^ wor
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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