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________________ १६४ www muwwur mon wowwe i पाण्डव-पुराण। wnunn wowwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww और सूक्ष्म-बुद्धि अर्जुन मन-ही-मन सोचने लगा कि कहाँ तो परिवारके साथ । नगरमें रहनेवाले, उत्तम उत्तम भोगोंको भोगनेवाले, मिष्टभाषी, राज्यमान्य और विद्वानोंमें श्रेष्ठ विद्वान् द्रोणाचार्य और कहाँ निर्दय, जीवोंका घातक और अति क्रूर जीवोंके साथ निडरतासे युद्ध करनेवाला यह भील । नगर और वनमें रहनेवाले इन दोनोंका समागम होना अत्यन्त विषम है। जैसे कि पूर्व-समुद्रमें छोड़ी गई सैल और उत्तर समुद्रमें छोड़े गये जुआका समागम बड़ा कठिन होता है। इसके बाद अर्जुनने उस किरातसे कहा कि तुमने उत्तम गुणोंसे शिष्टोंमें भी गरिष्ट उन द्रोण गुरुको कहा देखा है ? इसके उत्तरमें चई बोला कि यहाँ एक रमणीय स्तूप (थंमा ) है । उसी स्तूपको द्रौण समझ कर मैंने यह विद्या माप्त की है । इतना कह कर वह नम्र और गुण-गौरवका ज्ञाता भील अर्जुनको उस स्तूपके पाम ले गया और दिखा कर बोला कि देखो, यही पवित्र आत्मा द्रोण मेरे परम गुरु हैं । इनके आश्रयसे लोहा उसी तरह सोना हो जाता है जिस तरह कि पारसके संयोगसे । हे राजन्, मैं हमेशा सवेरे उठतेके साथ ही इस विपुल और पावन स्तूपको गुरु-बुद्धिसे नमस्कार करता हूँ। इसीके प्रसादसे ही मैंने यह शब्दवेधिनी विद्या पाई है । मैं हमेशा इसकी सेवा भक्तिमें लगा रहता हूँ । मैं परोक्ष रूपसे द्रोण गुरुकी विनय करता हूँ और रातदिन स्थिर चित्तसे उन्हींके गुणोंको स्मरण करनेमें लगा रहता हूँ । हे राजन्, द्रोण गुरुके संख्यातीत गुणोंका चिंतन करता हुआ मैं जिस वक्त इस गुरु-तुल्य स्तूपको देखता हूँ तब मेरा चिच स्नेहसे भर आता है । देखो, कहा है कि जो गुरु-बुद्धिसे गुरुके चरणोंकी स्थापनासे पवित्र हुए स्थानकी भी सेवा करता है वह भी संसारमें मन-चाहे सुखोंको पाता है । यह सुन कर पायें अपने शुद्ध वधनों द्वारा उसकी प्रशंसा करने लगा और बोला कि चाहे सज्जन पुरुष कितनी ही दूर क्यों न हों पर सत्पुरुष उनके गुणोंको ले ही लेते हैं। क्यों कि गुण-ग्रहण करनेका सत्पुरुषोंका स्वभाव ही होता है। शवरोत्तम, तुम महान् हो, महान् पुरुषों द्वारा मान्य हो एवं गुरु-भक्ति-परायण और गुणवानोंमें श्रेष्ठ हो । इस प्रकार उस भीलकी स्तुति कर अर्जुन वहॉसे अपने नगरको चला आया। पर उक्त घटनासे उसके हृदयमें बड़ी उछल-कूद मच रही थी। अतः वह शीघ्र ही द्रोणाचार्यके पास पहुंचा और उन्हें नमस्कार कर उनके पास बैठ गया । वाद वह बोला कि गुरुवर्य, मैं आज शत्रुओंको नाश करनेकी इच्छासे वनमें गया था। वहाँ मुझे तरकस बाँधे हुए एक भील दीख पड़ा। वह कुण्डलके आकार
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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