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ग्यारहवाँ अध्याय |
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जैसे धनुषको लिये था । उसके हाथमें बाण या । उसको देख कर मैंने पूछा कि मित्र, तुम कौन हो ? कहाँ रहते हो १ और कौनसी विद्या जानते हो ? उसने उत्तर में कहा कि मैं किरात हूँ, यहीं वनमें रहता हूँ और द्रोणाचार्य गुरुके उपदेशसे में शब्द वेधिनी विद्याको भली भाँति जानता हूँ । परम पूज्य गुरुवर्य, उसके इस वचनों को सुन कर मै आपसे कहने के लिए यहाँ आया हूँ । स्वामिन, वह बड़ा निठुर है, दुष्ट और दुरात्मा है । उसकी सभी चेष्टायें अनिष्ट रूप होती हैं । वह हतबुद्धि, सदा ही निरपराधी जीवोंको मारा करता है । खेदकी बात यह है कि वह मायाचारी आपके उपदेशका बहाना करके जीव-राशिके गाणको व्यर्थ ही हरता है और घोर पाप करता है। पार्थके इन दुःख भरे शब्दों को सुन कर द्रोणको वडा भारी खेद हुआ और वह मन ही मन विचारने लगे कि इस पापात्माको इस दुष्कृत्यसे रोकने क्या उपाय हैं । कुछ सोच कर वह उसको दुष्कृत्यसे रोकने के लिए अर्जुनके साथ उसी समय वहाँसे वनको चले और रास्ते में धनुष-बाणधारी भीलोंको जाते हुए देखते उसी वनमें पहुॅचे। वहाँ अति शीघ्र ही उनकी उस भील से भेंट हो गई । भीलने अति शान्त-चित्त गुरुको नमस्कार किया। परन्तु वह जानना न था कि जिसका मैं गुरु मानता हूँ वह द्रोणाचार्य यही हैं और माया- वेप घर कर यहाँ आये हैं। इसके बाद वह गुरुके चरणों में बैठ गया । उस समय द्रोणने उससे पूछा कि तुम कौन हो ? और तुम्हारा गुरु कौन है ? इसके उत्तरमें वह द्रोणाचार्यको प्रसन्न करता हुआ मीठे वचनों में बोला कि मैं भील हूँ और नाना कलाओं के जानकार महान पुरुष द्रोणाचार्य मेरे गुरु हैं | उन्हीं प्रसादसे मैंने यह सब मनोरथों को साधनेवाली विद्या पाई हैं, और यदि मुझे उन महान् पुरुषका दर्शन मिले तो मैं अपना बड़ा भारी सौभाग्य मानूँगा । यद्यपि वह विशुद्ध आत्मा और समृद्धि-सिद्धि-बुद्धिसे युक्त मुझसे परोक्ष है तो भी इस समय मैं उन्हें भक्ति भावसे प्रत्यक्ष समझ कर ही आराघता हूँ । भक्तिबलसे वह हमेशा ही मेरी दृष्टिके सामने रहते हैं । मैं उन्हें कभी भी नहीं भूलता हूँ। यह सुन कर द्रोणने कहा कि किरात, यदि इस समय नाना लक्षणोंसे लक्षित उन द्रोणाचार्यको तुप प्रत्यक्ष देख पाओ तो उनके प्रति तुम कैसा व्यवहार करो ! इसके उत्तर में किरात चोला कि यदि मैं इस समय उन्हें प्रत्यक्ष देखें तो मैं अपनेको निछावर कर सब प्रकार उनकी सेवा करूँ । मुझमें और कुछ परोपकार करनेकी सामर्थ्य तो नहीं है, इस लिए मुझ सरीखे शक्ति-हीनों के लिए गुरुसेवा ही पर्याप्त है, बस है । इस पर द्रोणने कहा कि तुम द्रोणके कुछ लक्षणोंसे उसे