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पाण्डव-पुराण ।
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जानते हो । उत्तरमें किरातने कहा कि हाँ, मैं उन्हें पहिचानता है। तव द्रोण बोले कि सारे-संसारका हितैषी, विद्वानों द्वारा मान्य और मनोहर मैं ही तुम्हारा गुरु द्रोणाचार्य हूँ। यह सुन कर भील बहुत ही खुश हुआ। उन्हें अपने गुरु जान कर । उसका मुख-कमल खिल उठा और उसने द्रोणको पृथ्वी तक मस्तक झुका कर साष्टांग प्रणाम किया। सो ठीक ही है कि इष्ट वस्तुके चिरकालसे मिलने पर सभी को भीति होती है । उस विनयीने गुरु द्रोणाचार्यका खूब विनय-सत्कार किया। सच है कि गुरुके मिलने पर सभी बुद्धिमान् उनका विनय करते हैं ।
इसके बाद द्रोणने उस भीलसे पूछा कि तुम कुशल तो हो न ? वह बोला, कि नाथ, तुम्हारे प्रसादसे मैं कुशल हूँ। मुझे किसी तरहका कष्ट नहीं है । गुरुके समागमसे मैं बहुत ही प्रसन्न हूँ। इस पर वह न्याय-मार्ग-पारंगत और वाग्मी द्रोण बोल कि किरात, तुम वनवासी हो, विन-समूहके विघातक हो, मेरी सेवा-विधिक ज्ञाता हो, मेरी आज्ञाके प्रतिपालक हो, तुम्हारे समान इस भूतल पर मैंने आज तक कोई भी विद्यार्थी नहीं देखा है । तुम बड़े ही अच्छे मालूम पड़ते हो । देखो, मैं यहाँ तुमसे एक याचना करनेके लिए आया हूँ। यदि तुम देना स्वीकार करो तो यात्रु; क्योंकि याचनाका भंग बहुत ही दुःखदाई होता है । यह सुन भील काँपता हुआ और मनमें विस्मय करता हुआ वोला कि स्वामिन् , यह आप क्या कहते है ! मैं तो सर्वथा आपकी आज्ञाका पालक हूँ। मुझ शक्तिहीनके पास ऐसी कौनसी सम्पत्ति है जो आप जैसे पुरुषोंके लिए देय न हो। इस पर द्रोण बोले कि सुनो। मैं जो चाहता हूँ वह देय. वस्तु तुम्हारे पास है। यदि देनेकी इच्छा हो तो वचन दो । फिर मैं यात्रु । भील बोला कि मैं सब कुछ आपको देनेको तैयार हूँ। आप प्रसन्नताके साथ मॉगिए । द्रोणने कहा कि बस, मैं यही चाहता हूँ कि तुम अपने दाहिने हाथके अंगूठेको जड़से काट कर मुझे दे दो। यह सुन कर भक्तिके वश हो गुरुकी आज्ञाके प्रतिपालक और उनके गुणों पर मुग्ध उस भीलने अपने दाहिने हाथके अँगूठेको काट कर गुरुको सौंप दिया। सच है कि अँगूठे हीकी क्या वात है तो भक्त लोग, भक्तिके वश हो कर अपना जीवन भी दे डालते है । उसके अँगूठेको कटवा कर द्रोणाचार्यने अपने उसी उद्देश्यको जिसके लिए कि उसका अँगूठा कटवाया था, उस भीलके सामने कहा कि दाहिने हाथके अंगूठेके विना कोई भी धनुषको नहीं चढ़ा सकता, अतः इसके द्वारा जो जीवोंके वधसे बड़ा भारी पाप होता था. वह