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ग्यारहवाँ अध्याय ।
अव न होगा। इसके बाद उन्होंने यह सोच कर कि पापी पुरुषों के लिए शब्दावेधिनी-विद्या नहीं देना चाहिए, पार्थको वह विद्या पूर्ण रीतिसे सिखा दी।
इसके बाद पार्थके साथ वह अपने नगरको चले आये और सुख-शान्तिसे उत्तम उत्तम चीजोंमे उत्पन्न हुए भोगोंको भोगने लगे; आनंद-चैनसे अपना समय विताने लगे। इसी तरह भीतरसे विरोध रखनेवाले पर बाहिरसे मीठे मीठे बोलनेवाले नाना कला-कुशल कौरव-पांडव भी वहीं रह कर सुखसे काल विताने लगे।
भीमके शरीरकी फान्ति सोनेके जैसी थी। बड़े बड़े विनोंका वह निवारक था। उसके लिए विष अमृत और सॉप सर्प-कंचुकीके जैसा निस्सत्व हो गया था । एवं अथाह गंगाका जल भी उसके लिए जॉघों गहरा रह गया था । यह सब पुण्यका ही महत्व है । देखो, जिसके पुण्यका जोर होता है उसके लिए सुतरां ही सब अच्छे अच्छे निमित्त आ मिलते हैं और सम्पत्ति उसका पीछा नहीं छोड़ती।
___ वह अर्जुन संसारसे सुशोभित हो जिसकी कीर्ति दिगन्त-व्यापिनी है, जो उपमा-रहित है, अनोंको दूर करनेवाला और उत्तम अभिप्रायवाला है, जो सत्पथगामी और सव कामोंमें हमेशा एक मनोरथसे चलता है। अत एव जो समर्थ, धनुर्धरोंमें मुख्य और धर्म-बुद्धिका धारक है, जो धर्म-धनुष द्वारा वैरियोंका ध्वंस कर चुका है, जिसका कोई भी वैरी नहीं है और जो प्रमाण-प्रसिद्ध पदार्थों पर विश्वास करता है।