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________________ . १६८ पाण्डव-पुराण | A2V~ 51 AWavvy ~~~~~~ ~~~ बारहवाँ अध्याय | उन पद्मप्रभ जिनदेवको मेरा प्रणाम है जो लक्ष्मीके दाता है, जिनका शरीर लाल कमलके जैसी कान्तिवाला है, जिनके वक्षःस्थलमें लक्ष्मीका निवास है और केवलज्ञान होनेके बाद विहारके समय जिनके चरण-कमलोंके नीचे देवता- गण कमल (की रचना करते हैं । इसके बाद श्रेणिक महाराजने गौतम भगवानको पूछा कि प्रभो, जिस समयकी यह कथा है उस समय यादवोंके कैसी विभूति थी और वे कहाँ रहते थे । इसके उत्तरमें गौतम स्वामीने अपनी गंभीर ध्वनिसे कहा कि श्रेणिक, अब यादवों का पवित्र चरित कहा जाता है । उसको तुम सावधान चित्तसे सुनो। एक दिन अंधकवृष्टिने संसारसे विरक्त होकर अपने वडे पुत्र समुद्रविजयको सव राज्य सौंप दिया और आप गुरुके निकट जा दीक्षित हो गया । राज्य अब जयी समुद्रविजय करने लगा । समुद्रविजयके छोटा भाई वसुदेव था । एक दिन वह गंघसिन्धुर नामके हाथी पर सवार हो, सेना सहित उत्सवके साथ क्रीड़ा करनेके लिए वनको गया । उसके ऊपर चमर ढुल रहे थे और भाँति भाँति के भूषणोंसे विभूषित, स्वभाव - सुन्दर उसके शरीरकी अपूर्व ही शोमा थी । उसे देख कर शहरकी कामिनियाँ बहुत व्याकुल हुई । उसके सौन्दर्य पर मुग्ध होकर वे अपने घर गिरस्तीके कामोंको छोड़ कर उसको देखनेके लिए बाहिर आ गई । और तो क्या, वे उसे जब आता सुन पातीं तभी अपने पति देवोंको भोजन आदि करते और बाल-बच्चोंको दूध पीते छोड़ कर बाहिर भाग आती थीं । यह हाल देख कर शहरके लोगोंने राजासे प्रार्थना की और राजाने भी उनकी प्रार्थना पर उचित ध्यान देकर अवसे घरके बगीचेमें ही क्रीड़ा करनेका प्रबंध कर कुमारको उद्यान जानेसे रोक दिया । एक दिन कुमार अपने चागमें क्रीड़ा कर रहा था । इसी समय निपुणमति नाम नौकरने आकर राजकुमारसे वन जानेसे रोके जानेकी बात कह दी । सुन कर उससे वसुदेवने पूछा कि मुझे वन जानेसे किसने रोका है ? उत्तरमें उसने कहा कि प्रभो, जिस समय आप वनको जाते
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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