SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्यारहवाँ अध्याय। imammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmumommmmmmwwwmmmmmm नाकका आगेका भाग वाणके अग्र-भागकी तरह विल्कुल पतला. था । उसके वाल वधे हुए थे। वह भयानक और एक कुत्तेको साथ लिये हुए था । उसको देख कर तेजस्वी पाडुनन्दन अर्जुन बोला कि मित्र, तुम कौन हो ? कहाँ रहते हो ? और कौनसी विद्या जानते हो? यह सुन क्रोधसे लाल नेत्र किये हुए अत एव क्षमा-रहित और देखनेमें भयावना वह भील अहंकार भरे शब्दोंमें बोला कि सुनिए, धनुषधारियोंको भय देनेवाला तथा औरोंको प्रीति देनेवाला मैं एक भील हूँ और इसी वनमें बसता हूँ। मैं धनुपकलाका पण्डित हूँ। मुझमें धनुप-वाणके द्वारा हर एक माणीको वेधनेकी अपूर्व सामर्थ्य है । मैं शब्दवेध करनेसें पूर्ण समर्थ हूँ। मेरे समान लक्ष्यवेध करनेवाला पृथ्वीकी पीठ पर और कोई नहीं है । और तो क्या, मेरी भृकुटिको देख कर ही कई तो प्राण त्याग देते हैं । उस धनुर्धर भीलके ऐसे पराक्रमको सुन कर अर्जुन बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उससे पूछा कि हे शब्दवेध-निपुण, उस सिंह-तुल्य कुत्तेको क्या तुमने ही अपने अपूर्व वाण-विद्याके पल मारा है ? भील बोला-हे सुन्दर श्रोत्रोंवाले और कामकी मूर्ति, आप मनोरथ सिद्धिके साधक, सुन्दरांग और कमलके जैसे नेत्रोंवाले, कमला-लक्ष्मी-के आलय, सुन्दर कामियों द्वारा वांछनीय, कर्तव्य-परायण और भॉति भॉतिकी कलाओंकी केलिके स्थान देख पड़ते है । अतः मैं अपनी कृतिको आपसे कहता हूँ। आप ध्यान देकर सुनिए । वह यह कि मैं शान्तचित्तसे कहीं जा रहा था कि इतनेमें मैंने उस कुत्तेका भयावह शब्द सुना । सुन कर मुझे कुछ रंजसा हुआ और ऐसी ही अवस्थामें मैंने उसका वाण द्वारा काम तमाम कर दिया । भीलकी इस बातसे उसे शब्द-वेधी जान कर कौरवाग्रणी अर्जुनको बहुत अचम्भा हुआ और तब उसने शोभा-विहीन और लोभी उस भीलसे पूछा कि किरात, बताओ कि तुमने यह शब्दवेधिनी उत्तम विद्या कहॉसे सीखी है ? देखो, यह अक्षरशः सत्य है कि उत्तम विधाका उत्तम फल मिलता है या यों कहिए कि उत्तम विद्या उत्तम फल देती है। ऐसी उत्तम विद्याका देनेवाला कौन अपूर्व पण्डित तुम्हारा गुरु है । इस समय तो शब्द-वेधिनी-विद्याको सिखानेवाले गुरु कहीं दीखते भी नहीं । अर्जुनकी ऐसी युक्ति-संगत वातोंको सुन कर मुसक्याता हुआ वह कृतज्ञ और सुकृती भील पोला कि शत्रु-समूहके ध्वंसक द्रोणचार्य मेरे सद्गुरु हैं, और उन्हींके प्रसादसे मैंने यह उत्तम विधा पाई है। इस समय यह विद्या उनके सिवा और किसीके पास नहीं है । अतः इस विद्याकी विधिको बतानेवाले मेरे वही गुरु हैं और कोई नहीं । उसके इन वचनोंको सुन कर सफल-मनोरथ, पवित्र-चित्त
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy