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________________ पाण्डव-पुराणे। wwwwwwwmmmmmmmmmmmmwwwmore v vavrawwvmmraar.mm. एक समय शत्र-विध्वंसक समर्थ अर्जुन धनुप-वाण हाथमें लेकर वनको गया और वहॉ हिंसक सिंह, व्याघ्र आदि जीव-जन्तुओं द्वारा लोगोंको जो आपदायें हो रही थीं उन्हें दूर कर, वनचर हिंसक जीवोंको डराता हुआ, घृमता फिरता, एक गहन स्थानमें पहुंचा । वहाँ उसने सिंहकी नाँई उन्नत एक कुत्तेका मुंह वाणोंसे विघा हुआ देखा । उसको देख कर वह सोचने लगा कि यहाँ इस तरह बाण चलाने वाला कोई मनुष्य तो दीखता ही नहीं, फिर इस प्रचंड कुत्तेका मुंह इस तरह वाणोंसे किस धनुष विद्या-विशारदने वेध दिया है । दूसरी बात यह है कि शब्द-वेध जाने विना कोई ऐसा काम कर भी नहीं सकता । और यहाँ शब्द-वेधके ज्ञाताका होना बड़े अचम्भेकी बात है । क्योंकि शब्द-वेधके कारण ही मेरे गुरु महान् पंडित द्रोणको सभी धनुषविद्या-विशारद मानते हैं और इसीसे वे संसार में प्रसिद्ध हैं । और यह सुना भी जाता है कि शब्द-वेध बहुत कठिन है; दुराराध्य है-उसको कोई भी नहीं जानता। यदि कोई जानता है तो द्रोण ही जानता है । फिर यहाँ शब्द-वेधका ज्ञाता कहाँसे आया । यदि किसी दूसरे विद्यार्थीको द्रोण गुरुने ही सिखाया हो तो यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि मैं हमेशा ही उनके पास शब्द-वेध सीखनेके लिए उपस्थित रहता हूँ और उन्हींके आश्रयसे मैं धनुषविद्या-विशारद हुआ हूँ, मेरा धनुषविद्यामें चंचु-प्रवेश हुआ है । एवं प्रसन्न होकर उन्होंने मुझे शब्दवेध-विद्या सिखाई है और किसीको नहीं सिखाई है । फिर दूसरा कोई शब्द-वेध-कुशल यहाँ हो ही कैसे सकता है। परन्तु इसमें भी संशय नहीं कि इस कुत्तेको भोंकते वक्त किसी शब्दवेध-विशारदने ही मारा है। बड़े अचम्भेकी बात है कि उसका कुछ पता नहीं चलता। इसके बाद वह धीरवीरोंको भी शिक्षा देनेवाला वीरवर अर्जुन इसी बातका बार वार स्मरण करता हुआ गर्वके साथ जंगलमें घूमने लगा। और उस शब्द-वेधी वाण चलानेवालेको देखनेकी प्रबल इच्छासे वह अनायास ही बड़ी बड़ी दूर तक धूम आया। उसने पहाड़ोंकी गुफायें और शिखर देखे, कताओंके सुन्दर मंडप देखे । इतने में उसे एक भील देख पड़ा। वह कंधे पर धनुष लिये था, वीर था, वनमें रहनेवाला था, वाण छोड़नेमें वड़ा चतुर था, उसके नेत्र बड़े भयंकर थे, दोनों पसवाड़े इधर उधर घूमनेके कारण क्षुभित हो रहे थे । वह कमरमें तरकस वॉधे था । उसका तरकस वाणोंसे परिपूर्ण था। उसको आलस लेशमात्र न था । उसका हाथ हमेशा नृत्यसा करता था और वह • अपने वेगकी चंचलतासे इवाको भी मात करता था । उसका मुंह नीचा था । उसकी
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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