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ग्यारहवाँ अध्याय
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बॉधी -त्यों ही उन धनुर्धर गुरुको प्रणाम कर धनुपके संधान में बुद्धिमान और धनुर्धर धनंजय (अर्जुन) चोल उठा कि हे धनुप-विद्या- विशारद गुरुपुंगव, इस लक्ष्यको बेधनेके लिए तुम सर्वथा समर्थ हो, फिर तुम्हारे बेधनेमें अचम्भा ही क्या हैं । हे तातपाद, इस समय आपका यह लक्ष्य वेध करना ऐसा है जैसे सुरजको दीया दिखाना और आम पर वन्दनवार बॉधना या कस्तूरीको चंदनकी धूपसे सुगन्धित करना । भावार्थ यह कि जिस तरह सूरजको दीया दिखाना शोभा नहीं देता उसी तरह यह लक्ष्य वेध आपको शोभा नहीं देता । और एक बात यह भी है कि मुझ सरीखे आपके ही धनुपधारी विद्यार्थीके उपस्थित रहते आपको यह काम करना युक्त भी तो नहीं मालूम पडता । इस लिए प्रभो, मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं आपके ममादसे पाई हुई धनुप-विद्या के मलसे इस विपम लक्ष्यको भी आसानीसे वेध सकूँ। यह सुन द्रोणने गौरव -शाली अर्जुनको लक्ष्य वेध करनेके लिए आज्ञा दे दी। और अर्जुन भी उसी समय हाथमें धनुप लेकर वहाँ जाकर अचल हो बैठ गया, जहाँसे उसे लक्ष्यवेध करना था । इसके बाद धनुष पर डोरी चढ़ाकर उस यशस्त्रीने वज्रके शब्द जैसी गर्जना की । कौआ बहुत ही चंचल था, वह क्षण-क्षणमें गर्दनको इधर से उधर और उधर से इधर मोडता था । उसके नेत्र और भी अधिक चंचल हो रहे थे । ऐसी हालत में उसकी दाहिनी आँखको लक्ष्य बनाना बहुत ही कठिन था, परन्तु फिर भी अर्जुनने उसे लक्ष्य वना उसीकी ओर अपने मन और बुद्धिको लगा दिया । उसने इस इच्छासे कि कौआ मेरी ओर नीचेको देखे, फिर धनुष - का शब्द फिया । जिसे सुन कर कौआ उसकी ओर मुॅह कर नीचेको देखने लगा । इतने हमें उस लक्ष्य वेधके पूर्ण विद्वान अर्जुनने अति शीघ्र उसकी दाहिनी आँखको वैध दिया । उसकी इस सफलताको देस कर द्रोणाचार्य और कौरव आदि सभी चापविद्या - विशारद अर्जुनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करने लगे । वे बोले कि बहुतसे धनुषधारियोंको देखा; परन्तु ऐसा धनुष-विद्या-निपुण अब तक कोई भी देखने में नहीं आया । अर्जुन, तुम धनुप-विद्यामें पारंगत विद्वानों में भी श्रेष्ठ विद्वान् हो । अत्र और गुणी या गुणग्राही तुमसे चढ़कर कौन होगा । इसके बाद वे सब अर्जुनकी इस सार्थक कीर्ति कहानीको कहते सुनते हुए अपने अपने घर चले आये । परन्तु अर्जुनके इस निर्मल बलको देख कर कौरवोंका हृदय बड़ा दुःखी हो रहा था ।
पाण्डव-पुराण २१