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पाण्डव-पुराण।
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एक दिन द्रोणाचार्यने अपने परम प्रीतिभाजन अर्जुन आदिसे कहा कि प्रिय शिष्यो, तुम धनुष-विद्याके सम्बन्धमें हमेशा मेरी आज्ञाके अनुसार ' ही चलना; कभी मेरी आज्ञासे विरुद्ध न होना।
द्रोणाचार्य सब विद्याओंमें पारंगत, कृपाके सागर तथा धनुष-विद्याके पूर्ण पण्डित थे। तब भी कौरवोंने उनके वचनोंकी अवज्ञा की और वे स्वतंत्र रहने लगे । परंतु बुद्धिमान् और समर्थ अर्जुनने उनकी आज्ञाका यथावत् पालन किया और यह उचित ही था, क्योंकि विद्या उन्हींको प्राप्त होती है, जो गुरुके आज्ञा-पालक होते हैं । इस पर प्रसन्न होकर द्रोणाचार्यने अर्जुनको वर दिया कि मैंने तुम्हें आज पूर्ण धनुप-विद्या दी; तुम शुद्ध, निर्दोष धनुप-विद्यासे मेरे समान ही हो जाओगे । इसमें बिल्कुल सन्देह नहीं । ऐसी मेरी हार्दिक इच्छा है ।
गुरुके इन वचनोंको सुन कर पवित्र-चित्त अर्जुन वड़ा कृतार्थ हुआ। और उस परमार्थके ज्ञाता तथा गुरुको हमेशा अपने हृदयमें विराजमान किये रहनेचाले अर्जुनने धनुष-विद्याके अभ्यासमें लगे रह कर थोड़े ही दिनमें उसमें पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया।
इसके बाद एक दिन पांडवों और कौरवों सहित द्रोणाचार्य अपने शिष्योंको धनुष-विद्या सिखानेके लिए वनमें गये । वहाँ उन लोगोंने ऊँची डालियोंवाले और फल-पत्तोंसे लदे हुए एक वृक्षको देखा । उस पर वहुतसे पक्षी बैठे हुए थे । उसकी बीचकी डाली पर एक कौआ बैठा हुआ था । उसको देख कर धनुर्वेदी द्रोणने पांडवों और कौरवोंसे कहा कि जो इस कौएकी दाहिनी आँखको लक्ष्य-निशाना बना कर वेधेगा, वही विद्वान् धनुषधारी, दक्ष और धनुष-विद्या-विशारदोंमें अगुआ माना जायगा । यह सुन कर दुर्योधन आदि तो उस निशानेका लगाना कठिन समझ कर चुप रह गये । वे आपसमें विचार करने लगे कि प्रथम तो यह कौआ चंचल है और दूसरे इसकी आँख और भी चंचल है-पलमात्र भी एक ओर नहीं ठहरती, फिर इसके इस दाहिने नेत्रको कौन वेध सकता है और कैसे वेध सकता है । उनको इस प्रकार चुप-चाप देख कर चाप विद्या-विशारद और लक्ष्यको भली भॉति जाननेवाले द्रोण गंभीर ' वाणी द्वारा पांडव-कौरवोंसे बोले कि यदि तुममेंसे कोई भी इसे वेधनेको तैयार नहीं है तो लो मैं ही इसे वेधता हूँ । यह कह कर उसने धनुष पर सपुंख वाण चढ़ा कर ज्यों ही उस कौएकी दाहिनी ऑखकी ओर संघान लगाया-दृष्टि