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________________ ग्यारहवाँ अध्याय । १५९ लगे कि ऐसी वाण-कुशलता पहले हमने कभी न तो देखी और न इस समय कहीं दीखती है । इसके बाद कुछ काल वहाँ और ठहर कर परस्पर प्रेम-पूर्वक , कौरव और पांडव अपने नगरको लौट आये । कौरव लोग भीमके पुण्य और शक्तिको देख कर जब कुछ न कर सके तव सुतरां शान्त हो गये । और है भी ऐसा ही कि असमर्थ पुरुष जब कुछ नहीं कर सकते तब वे क्षमाका आश्रय ले लेते हैं। इस तरहसे पांडवों और कौरवोंको राज्य करते करते बहुत काल वीत गया, उन्हें वह कुछ भी न जान पड़ा । सच है पुण्यात्मा सत्पुरुपोंका महान् काल भी क्षणकी नाई गुजर जाता है और उन्हें उसका कुछ भान भी नहीं होता। इसके बाद एक समय गांगेयने तथा और और राजोंने विवाहके सम्बन्धमें द्रोणाचार्य से प्रार्थना की। कहा कि गुरुवर्य, अब आप अपना विवाह कीजिए और सद्गृहस्थ घनिए । द्रोणाचार्यने उनकी प्रार्थनाको उत्तम समझ कर स्वीकार कर लिया । गुरुकी सम्मति पाकर गांगेयने उनके विवाहका उत्सव शुरू कर दिया और गौतमके पास जाकर उससे उसकी कन्याकी द्रोणके लिए याचना की। कन्या लोगोंको आनंद देनेवाली और रूप-सौंदर्यकी मूर्ति थी । जान पड़ता था कि वह साक्षात् दूसरी रति ही है । उसके साथ द्रोणका विवाह-मंगल हो गया। विवाहके समय भाँति भॉतिके बाजे और कामिनी-गोंके मंगल-गीतोंसे बडी चहल-पहल रही । तात्पर्य यह कि विवाहके समय खूब ही धूमधाम की गई थी। विवाहके बाद उन दम्पति पर कामने अपना अधिकार जमाया और वे रति-सुख भोगते हुए आनंद-चैनसे अपना समय बिताने लगे। और एक दूसरे पर आसक्त चित्त होकर प्रेमसे स्वर्गके सुखोंको यहाँ भोगने लगे। __ अनन्तर कुछ कालमें उन दम्पतीके अश्वत्थामा नाम एक पुत्र पैदा हुआ । वह बुद्धिमान था, धीर था, धर्मात्मा और व्रती पुरुषोंका सेवक था । उसका शरीर तेजका पुंज था । वह धनुप-विधामें इतना निपुण था कि सब धनुषविद्या-विशारदोंमें महेश्वर----मुखिया--गिना जाता था । उसका हृदय हमेशा ही प्रेमसे परिपूर्ण और फूला हुआ रहता था, अत एव वह सव लोगोंको आनंददायक था।
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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