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________________ १७६ पाण्डव-पुराण. जो शिवादेवीके कुच कुंभोंकी नॉई उन्नत थे; दो मछलियाँ-जो ऐसी मालूम होती थीं कि शिवादेवीके विस्तृत नेत्र ही हैं। पांकर-(तालाव) जो कमलोंकी केसरसे पीला हो रहा था और चंचल तरंगोंसे परिपूर्ण था; समुद्र-जो गंभीर - शब्दमय था; सिंहासन--जो ऊँचे सुमेरु पर्वतके शिखरकी नाई उन्नत था; विमान-जो पुत्रके. प्रसूति गृहके तुल्य और विपुल श्रीका स्थान था; धरणेन्द्रका भवन--जो ऐसा जान पड़ता था मानों पृथ्वीको चीर कर ही वाहिर निकला है। रत्नोंकी रौशि-जो खजाने सी जान पड़ती थी और जो किरणोंके पूरसे भरपूर थी; अग्नि-जो निर्धूम थी और ऐसी मालूम पड़ती थी कि मानों पुत्रका प्रताप ही है । इसके बाद ही उसने एक हाथीको अपने मुंहमें प्रवेश करते हुए देखा। इन स्वप्नोंको देखनेके वाद ही उसकी निद्रा तो भंग हो ही गई थी कि इसी समय प्रातःकालीन वाजोंकी और देवांगनाओं द्वारा गाये गये मंगल गीतोंकी सुंदर ध्वनि उसके कानों पड़ी। उसे सुन कर मंगलमयी शिवादेवी प्रबुद्ध हुई। उसे प्रबुद्ध देख देवाङ्गनाओंने उसकी स्तुति करना आरंभ किया कि हे मात:, जिस तरह तुम्हारे मुखकी प्रभासे मानसिक अँधेरा (अज्ञान) नष्ट हो जाता है उसी तरह रातके अँधेरेको नष्ट कर यह सूरज उदित हो आया है और तुम्हारे गर्भस्थ वालककी नाँई अपनी किरणोंको विस्तृत कर संसारको अवोध देता है। लोगोंको मार्ग सुझाता है। देवी, तुम सैकड़ों कल्याणोंको प्राप्त करो और तुम्हारे लिए यह सुप्रभात शुभ हो । तुम उसी तरह पुत्रको जन्म दोगी जिस तरह कि पूर्व दिशा सूरजको जन्म देती है । तुम्हारा पुत्र तीन लोकको प्रकाशित करेगा । देवांगनाओंके इन मनोहर शब्दोंको सुन कर वालुके जैसी स्वच्छ रुईकी श्वेत-कोमल शय्या परसे शिवादेवी उठी। इसके बाद उसने स्नान आदि प्रभात-सम्बधी सब क्रियाएँ करके और दर्पणमें अपना मुँह देख कर वस्त्राभूषण धारण किये और वह सती समुद्रविजय महाराजके पास गई। उन्हें नमस्कार कर वह उनके साथ आधे सिंहासन पर बैठ गई । इस समय उसका मुख कमलके जैसा खिल रहा था। उसने हाथ जोड़ कर स्वमोंका सब होल महाराजसे कहा और उनसे उनका फल पूछा। उत्तरमें पुण्यात्मा समुद्रविजयने कहा कि मीति देनेवाली प्रिये, तुम ध्यानसे इन स्वप्नोंका फल सुनो । पहले स्वममें तुमने जो हाथी देखा है उसका यह फल •
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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