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ghatna अध्याय i
इकबीसवाँ अध्याय |
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उन धर्मनाथ प्रभुको नमस्कार है जो धर्मके उपदेशक हैं, धर्मयुक्त और धर्म - शाली हैं, जो अन्य जीवोंको भी धर्मात्मा बनाते हैं और धर्मराज ( यम ) को हरनेवाले हैं । वे मुझे भी धर्म- बुद्धि दें ।
सवेरा हुआ । भट-गण उठें और निर्दय हो मलय कालकी वायुसे क्षोभको प्राप्त हुए सागरकी भाँति क्षुब्ध होकर रणांगणमें पहुँचे । वे पृथ्वीमें रहनेवाले सॉपोको पददलित करते और दिशा-नाथोंको क्षुब्ध करते युद्धके लिए उद्यत हुए। उधरसे पार्थने मृत्युका आलिंगन करनेको हाथ बढ़ाये हुए भटों, घोड़ों और मतवाले हाथियोंको तितर-बितर करके उस युद्धका और भी विस्तार कर दिया । इसी समय महान् सुभट अभिमन्यु युद्धस्थल में आया और विश्वसेनके साथ युद्ध करनेको उद्यत हुआ । एवं हाथमें धनुष लेकर शत्रुओं को कंपित करनेवाले उस पार्थ- नन्दनने थोड़ी देर ही विश्वसेन के सारथीको घराशायी कर दिया । इतने में वैरियों के हृदयमें शल्यसा चुभने वाला और अपने रथको अपने आप ही चलाता हुआ शल्य-पुत्र अभिमन्यु के साथ युद्ध करनेके लिए आया । वे दोनों अपने अपने वाणोंकी वरसासे परस्परमें एक दूसरेको पूरने लगे । आखिर अभिमन्यु के शरोंके द्वारा शल्य- पुत्र ध्वस्त हो कालके गालमें चला गया । यह देख सुलक्षण लक्ष्मणने लक्ष्य वॉघ कर पार्थ- पुत्रको वज्रके जैसे तीव्र प्रहार करनेवाले वाणोंके द्वारा खूब पूर दिया । अभिमन्युने भी तव बाणोंको चलाना शुरू किया और लक्ष्मणको यमका अतिथि बना दिया । उसने रणमें स्थिर बने रह कर अपने माणाहारी वाणोंके द्वारा चौदह हजार और और कुमारौको भी मार गिराया । इस समय वह भद्र रण-क्रीड़ा करता हुआ और महान् महान् शत्रुओं को पृथ्वी की गोदमें लिटाता हुआ ऐसा शोभता था मानों हाथियों को तितर-बितर कर उनके मस्तकोंको विदार रहा पराक्रमी सिंह ही है ।
यह देख दुर्योधनको बड़ा क्रोध आया । उसका मन अत्यन्त क्षुब्ध हुआ । उसने मधुर मायाभरे शब्दों द्वारा उत्साह देते हुए अपने महान शूरोंकी ओर बड़ी आशासे देखा । उसके इस स्नेहसे कृतज्ञ हो वीरगण विचित्र और चंचल हाथी, घोड़ों तथा रथों पर सवार हो-हो कर युद्ध-स्थलको चले । वे कठोर शब्दोंका प्रयोग करते हुए चले जाते थे । उनके चेहरे भयंकर हो रहे थे । उनके साथ ही