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पच्चीसवाँ अध्याय |
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धर्म है । पर ध्यान रहे कि यह त्याग जब परिणामोंकी विशुद्धिके साथ किया aanant घर्मका रूप पावेगा । नहीं तो वह धर्म नहीं, किन्तु ढकोसला कहा 1. जायगा | देखो, यह धर्मका ही फल है जो जीवको सारभूत सुखका कारण अच्छा संयोग मिलता है और मनचाही वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं । ऐमा जान कर हे धीर्मन जिनदेव, तुम धर्म-रूपी अमृतको हृदयमें धारण करो । मुनिनाथ के द्वारा धर्मका स्वरूप सुन कर जिनदेवको वैराग्य हो गया और उसने व्रत धारण कर लिये; उन व्रतका आश्रय लिया जो कि संसार-सागर से पार होने के लिए नौका जैसे हैं— संसार से पार पहुँचानेवाले हैं ।
इसके बाद सुबन्धु ने बड़े हठपूर्वक, नाम और गुण दोनोंसे ही दुर्गन्धा जैसी अपनी लड़कीका विवाह जिनदत्त के साथ कर दिया। जिनदत्त उस नवोढ़ाके गाढ़ आलिंगनकी इच्छा से उसे अपने घर लिया गया और वहाँ वह उसके साथ एक शय्या पर बैठा । पर उसके शरीर से निकलनेवाली दुर्गन्धको न सकने के कारण वह भी माता-पिता से कुछ वहाना वना सवेरा होते ही घर से निकल भागा। उसके चले जाने पर दुर्गंधा बड़ी दुःखी हुई ओर अपनी जिन्दा करती हुई विलाप करने लगी कि हाय ! मैंने ऐसे कौनसे पाप किये जिनसे इस समय मेरे ऊपर यह दुःख आकर पड़ा । इसके वाद जिवदत्तके चले जाने की खबर जब दुर्गन्धाकी माताको मिली तब उसने दुर्गन्धाको अपने घर बुला लिया और उसे यह सीख दी कि बेटी, अव तू धर्म में अपनी बुद्धि लगा । तेरा कल्याण होगा। देख पापका कैसा बुरा फल | इसके बाद दुर्गंधा माताके पास ही रहने लगी । परंतु दुर्गंध से उसके स्नेहियोंको दुःख होने लगा तब उन्होंने उसे हमेशा के लिए ही एक जुदे मकान में रख दिया। इससे वह बड़ी दु:खी हुई ।
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इसके बाद एक दिनका जिक्र है कि अक्षुण्ण व्रतोंकी पालनेवाली एक अजिंका उसके पिता घर आई । दुर्गन्धाने जाकर उसे नमस्कार किया और पढ़गा कर विधिपूर्वक उज्ज्वल आहार दिया। अपनी साथकी दो अर्जिका के साथ ग्लानि-रहित और निर्मल मनवाली उस अर्जिकाने आहार लेकर क्षणभर समता भावके साथ वहाँ विश्राम किया। तब दुर्गन्धाने उससे पूछा कि आयें, ये दो युवती अर्जिकाएँ कौन हैं ? और इनके दीक्षित होनेमें क्या कारण है १ उत्तरमें भर्जिका बोली कि ये दोनों पहले स्वर्गमें सौधर्म इन्द्रकी विमला और सुप्रभा नामकी देवियाँ थीं । एक समय ये दोनों पूजाके लिए उद्यत होकर अपने देवके साथ नन्दीश्वर दीप गई और वहाँ इन्होंने हर्ष के साथ जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों की पूजा की। इसके
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पाण्डव-पुराण ४८
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