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________________ ३७८ पाण्डव पुराण साथ ही इन्होंने गीत, नृत्य आदि उत्सव कर यह प्रतिज्ञा की कि हम मनुष्य भरमें नियमसे तप करेंगी। इसके बाद आयुको पूरी होने पर वहाँसे चय कर आई और भाकर यहाँ अयोध्याके श्रीषेण राजाकी श्रीकान्त नाम रानीके गर्भसे पुत्रियाँ हुई। इनका नाम हरिषेणा और श्रीषेणा है । कुछ कालमें ये युवती हुई । मदनाषिष्ठित इनका रम्य रूप बहुत ही सुन्दर दिखाई पड़ने लगा। तब कल्पनातीत सैकड़ों उत्सवोंके, साथ राजाने इनके स्वयंवरकी तैयारी की। उस समय बुलाये हुए देश विदेशोसे ५ बड़े बड़े विद्वान और मंगल-रूप गहनोंसे मंडित गज-गण आये और मंडपमें इकडे हुए । इस समय अपनी कमला नामकी वेत्रधारिणी दामीके साथ ये मंडपमें आई और वहाँ बैठे हुए राजाको देख कर इन्हें जाति-स्मरण हो आया । ये तब अपने पहले भवके पिताओंकी याद कर, अपने गुजरे हुए भवोंका हाल कह कर और सब भूपोको वापस विदा कर वनको चली आई । वहाँ उत्तम संयमी ज्ञानसागर मुनिको नमस्कार कर उनसे इन्होंने यह प्रार्थना की कि जिसमें फिर इन्हें स्त्रीपर्याय न धारण करना पड़े। इसके बाद इन दोनोंने उन मुनिसे दीक्षा ली और विहार करती करती ये यहाँ आई हैं। - उस अर्जिकाके ऐसे वचन सुन कर दुर्गन्धा भी विरक्त हो कर ! मन-ही-मन बोली कि धन्य है इनको जो ये बड़भागिनी राज-पुत्रियाँ इतनी सुंदर और सुकोमल होकर.भी भोगोंको छोड़ कर दीक्षित हुई । और मैं ऐसी बुरी-देहवाली जिसके पास दुर्गन्धके मारे कोई खड़ा तक भी नहीं होता-सदा दु:खिनी रहती हुई भी विषयोंकी वाम्छा रक्खू तो कहना पड़ेगा कि मेरा बड़ा भारी दुर्भाग्य है-मुझ-सदृश अभागिनी कोई नहीं है । यह कह कर लज्जासे नत-मस्तक हुई उसने संयमके लिए उस अर्जिकासे प्रार्थना की और अपने माता पिताको समझा-बुझा कर तप धारण कर लिया-वह तपस्विनी हो गई। इसके बाद तीव्र तप तपते और परीषहोंको सहते हुए उसने भव्यशान्तिका ( अर्जिका ) के साथ पृथिवी-तल पर विहार किया। एक दिनकी बात है कि अपने पाँच विट पुरुषों को साथ लिये वसन्तसेना नामकी एक सुन्दरी वेश्या वनमें पहुंची। उसे देख कर इस दु:खिनीने निदान । किया कि मैं भी ऐसी ही होऊँ। इसके बाद ही जब उसे ख्याल हुआ तो वह बड़ी पछताने लगी कि षिकार है मुझे जो मैंने सुखको जलांजलि देनेवाली बातको हृदयमें स्थान देकर दुष्ट चित्त द्वारा मिथ्या पापका उपार्जन किया । इसके बाद , बह घोर तप तप कर और अन्तमें संन्यास लेकर, प्राणोंको गड़ अच्युत नाम
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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