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बावीसवाँ अध्याय ।
बावीसवाँ अध्याय ।
उन मल्लिनाथ प्रभुको नमस्कार है जो शल्यको हरनेवाले और कर्म-मल्लको
जीतनेवाले हैं । मलिकाके फूलके जैसा सुगंध देनेवाला जिनका उत्तम शरीर है तथा जो उन्नत और सत्पुरुषों के पालक हैं।
एक दिन भीम आदि द्वारा पूजित युधिष्ठिर हर्पके साथ सिंहासन पर विराजे थे । उनके ऊपर चवर ढोरे जा रहे थे और उनकी सेवामें बहुतसे नृपति उपस्थित थे । उनके ऊपर जो छत्र लग रहा था उसके द्वारा सूरजकी किरणोंके रुक जानेसे उनकी और भी अधिक शोभा हो गई थी।
इसी समय उनकी सभामें स्वर्गसे नारद आये । महाभाग पांडव उन्हें देखते ही उठ खड़े हुए और उनका उन्होंने उचित आदर किया। नारदने पांडवोंको इधर उधरकी विविध दन्तकथाएँ सुनाई । इसके बाद वह सुमना पांडवोंके साथ साथ उनके अन्तःपुरमें गये । वहाँ मनुष्य द्वारा वन्दित उन महापुरुपने दीप्तिपूर्ण झरोखों, छज्जोंवाले और मनको मुग्ध करनेवाले द्रोपदीके सुंदर महलको देखा। इस समय द्रोपदी वहाँ खूब ही वढिया शृंगार किये, मस्तक पर मुकुट दिये सिंहासन पर विराजी थी। वह अपने विशाल भालमें तिलक दिये थी और हृदयमें सर्वोत्तम सारभूत हार पहिने थी। उसने इस समय घर आये हुए नारदको न देख पाया और दर्पणमें पड़े हुए नारदके चेहरेको देख कर भी वह न तो उठ खड़ी हुई और न उनको उसने नमस्कार ही किया। इस अपमानसे नारद बड़े ही क्रुद्ध हुए और वह मस्तक धुनते तथा मन-ही-मन रोष करते वहॉसे उसी क्षण चले आये। ___ वह बड़-बढ़ाते हुए आकाशमें घूमने लगे । परन्तु जब उन्हें कहीं सन्तोष
न मिला तब वह आकाशमें दूर तक चल कर एक विशाल एकान्तमें पहुँचे। वहाँ . पहुँच कर वह सोचने लगे कि मैं वही न नारद हूँ जो सदा ही हर्षका भरा विना वाजोंके ही नाचा करता हूँ। लेकिन जब कारण मिल जाता है तब तो मेरे आनन्दका पार ही नहीं रहता । इस द्रोपदीने मेरा अपमान कर मुझे व्यर्थ ही कितना दुःखी किया है । अब तो मै जब इसका बदला ले लूँगा मुझे तभी सन्तोष होगा; मेरे इस अपमानका तभी प्रायश्चित होगा। इसके सिवा मुझे किसी तरह