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________________ . . . .mmmmmmmmmmmmmmmmmm ३४० पाण्डव-पुराणं। mmmmmmmmmmmmmmmm . xx. .. सब राजोंकी चन्दन, अगुरु आदिसे दग्ध-क्रिया की । इसी समय जरासंधके मंत्रियोंने सहदेव नाम उसके पुत्रको लाकर उसे कृष्णकी गोदमें रख दिया और कृष्णने भी उसे अपने पिताकी गादी पर बैठा कर मगध देशका राजा वना दिया। सच है कि गंभीर पुरुषोंका क्रोध तभी तक रहता है जब तक कि शत्रु नम्र नहीं होता, है । शत्रुके नम्र हो जाने पर तो वे और भी नम्र हो जाते है और वैर-विरोधको एकदम जलांजलि दे डालते हैं। __इसके बाद तीन खंडके स्वामी होकर कृष्णने बलभद्र सहित भाँति भाँतिके उत्सवों और वाजोंके साथ रमणीक द्वारिकामें प्रवेश किया । इधर पांडव भी अपनी राजधानी हस्तिनापुरमें आ गये । वहाँ वे धर्म-युक्त फर्मोंको करते हुए रहने लगे। उन्हें सब सुख प्राप्त हुए-किसी भी वातकी उनके लिए कमी न रही। जो वैरियोंके समूहका नाश कर सब मनुष्योंसे सेवित हुए-इन्द्र-तुल्य हुए, जो कल्याण-समुद्रके पूर और संसारके भयको हरनेवाले धर्मके धारक हुए, पुण्य-योगसे जो उत्तम राज्यको प्राप्त कर हस्तिनापुरमें अपूर्व संतान सुखके भोक्ता हुए और अनेक भव्य पुरुषोंने जिनसे सुख पाया उन शत्रुके भयको दूर करनेवाले पांडवोंकी जय हो। '. धर्मात्मा युधिष्ठिर शत्रुओंके भयको हरनेवाले हुए हैं, भीमसेन सेनामें बड़े प्रसिद्ध वीर हुए हैं। पार्थ अपने पृथु गुणोंसे बंदीजनों द्वारा प्रार्थित हुए हैं; इसी प्रकार मद्रीके पुत्र पवित्र नकुल और सहदेव , वीरतामें प्रख्यात हुए हैं ये असाधारण गुणोंके भंडार पाँचों ही पांडव चिरकाल तक पृथ्वीका पालन करें।
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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