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________________ सोलहवाँ अध्याय । २५३ ___ कर्णकी यह मर्म भेदी वाणी सुन कर द्रोणाचार्यने हाथमें धनुष-वाण लेकर अर्जुनसे ललकार कर कहा कि वीरवर, युद्ध के लिए तैयार हो । अपने परम गुरु द्रोणाचार्यको सामने देख कर धनंजयने चिचमें विचारा कि यह तो मेरे पूज्य गुरु हैं, गुणोंके समुद्र हैं । इन्हींके प्रसादसे मैंने इस युद्ध में विजय पाई है। फिर मैं इतना विचारशील होकर इनके साथ कैसे युद्ध करूं । मैं नहीं जानता कि वे पापी कहाँ जायेंगे, कौनसी दुर्गतिमें पड़ेंगे जो असंख्य गुणों के भंडार और हितैषी गुरुओंको भूल जाते हैं । यह विचार कर धनंजयने सात पैंड़ आगे जाकर द्रोणके चरणोंमें नमस्कार किया और द्रोणके पास लिख हुए पत्र के साथ एक वाण छोड़ा। बाण जाकर द्रोणके पास गिरा। उसे देख कर द्रोणने उग लिया और उसमें बंधे हुए पत्रको वॉचा। पत्र पढ़ कर हर्पके उत्कर्षसे द्रोणका मन खिल उठा । उस पत्रमें लिखा था कि " परम गुरु द्रोणाचार्यके चरणों में मेरा मस्तक नम्र है । मैं कुन्तीका पुत्र और आपका गुणसागर शिष्य हूँ। गुरो, मेरा नाम अर्जुन है । मैं आपसे एक प्रार्थना करता हूँ। उसे आप सुनिए । वह यह कि मैने विना कारण ही जो इस रणमें इतने योद्धाओंको मारा है इसका मुझे बड़ा दुःख है। गुरो, दुष्ट कौरवोंने हम लोगोंको विना कारण ही जला देनेका उपक्रम आरम्भ किया था । परन्तु पुण्य-योगसे किसी तरह हम उस महलसे निकल आये । वहॉसे नाना देशोंमें घूमते हुए सुखके सदन-रूप इस माकंदीपुरीमें आये । पुण्यसे आज यहाँ हमें आपके चरणोंके दर्शन हुए, इसका हमें बड़ा आनन्द है । अन्तमें आपसे मेरा यही नम्र निवेदन है कि आप थोड़ी देर ठहर जाइए और चुपचाप अपने इस विद्यार्थीकी भुजाओंके वलको देखिए ताकि मैं भी सार्थक हो जाऊँ । दुर्योधन आदिने जो पांडवोंको जला कर मारना चाहा था-इन्हें भी इनकी करतूतका फल चखा दूं।" उस पत्रको पढ़ कर द्रोणाचार्यकी ऑखोंमें पानी भर आया । उन्होंने जाकर कर्ण और दुर्योधन आदिसे पत्रका सारा हाल कहा । पत्रको सुन कर कर्णने कहा कि सच है कि अर्जुनके विना और किसमें ऐसी सामर्थ्य थी जो इस तरह रणमें वाणोके द्वारा शत्रुओंके सिरोंको छेदता । इसी तरह एक भीम ही सारे रणका संहार करने के लिए सदा समर्थ है; तथा युधिष्ठिर आदि पांडव भी इसके लिए खूब समर्थ हैं । यह सब हाल सुन कर कौरवाग्रणी दुर्योधन क्षणभरके लिए इति-कर्तव्य-विमूढ़ हो चकित सा रह गया । इतनेमें ही द्रोण पांडवों के पास पहुंचे। पांडवोंने उनके दर्शन कर, उनका आलिंगन कर उनके चरण
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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