SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५२ पाण्डव-पुराण। वाणोंको चला लो और फिर बाद अपनी सामर्थ्य से मेरे महान शरोंको सहो । इतनी वात-चीतके बाद वे दोनों सिंहकी तरह पराक्रमी योद्धा कान तक धनुषोंको खींच खींच कर युद्ध करने लगे और एक दूसरेके हृदयको चिदारने लगे। अन्तमें पार्थने कर्णके वचनोंकी नाँई उसकी धुना, सूरजकी गर्मीको दूर करनेवाले छत्र और कवचको छेद डाला। उधर सारे शत्रुओंको आपदाके पंजेमें फंसानेके लिए द्रुपदने कौरवोंकी सारी सेनाको वाणोंकी वरसा करके पूर दिया । इसी तरह वैरियोंको नष्ट करनेके लिए धृष्टद्युम्न आदि धीर वीर स्थिरताके साथ रण-स्थलमें युद्ध करने लगे। एवं रथ पर सवार होकर भीमसेनने दुर्योधनका सामना किया और वातकी वातमें उसका वखतर छेद डाला । इस महा समरमें ऐसा कोई भी मनुष्य, मत्त हाथी और महान् उत्कट घोड़ा न वचा जो कि पांडवोंके वाणोंसे न वेघा गया हो । अपनी सेनाको इस तरह नष्ट होती हुई देख कर भीष्म पितामह समरके लिए तैयार हुए और उन्होंने युद्ध कुशल शूरोंकी रण-कुशलताको अपनी कुशलतासे भुला दिया। उनको इस तरह युद्धस्थलमें उतरे हुए देख कर युद्ध-कुशल अर्जुनने अपने शरों द्वारा उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया; और वह पार्थ केसरी पितामहके बाणोंको अपने रण-कौशलसे निष्फल करने लगा। इतनेमें द्रोणाचार्यने दुर्योधनसे कहा कि राजन, देखो, घोड़ोंकी टापोंसे उठी हुई धूलसे आकाश कैसा लॅक गया है और रणमें अद्भुत क्रीड़ा करनेवाला यह पराक्रमी कैसी रण-कुशलता दिखा रहा है । राजन, जान पड़ता है यह अर्जुन ही है क्योंकि अर्जुनके सिवा और किसी में इतनी धनुष-कुशलता आई कहाँसे सकती है । यह बिल्कुल ही झूठ है कि विद्वान पांडव लाखके महलमें जल गये । क्योंकि वे जले नहीं किन्तु जीते जागते ही वहाँसे निकल गये और वे ही ये युद्ध में आ गये . हैं । यह सुन कर दुर्योधनका चित्त बड़ा व्याकुल हुआ और मस्तक घूम गया। वह चकित हो हँसता हॅसता बोला कि वाह गुरुराज, आप भी अच्छी बातें करते हैं । मला, जव पांडव लाखके महलमें ही जल चुके तव फिर वे यहाँ कहाँसे. आ गये। उनके साथ ही अर्जुन, भी वहीं जल चुका था फिर वह कहाँसे आया। गुरुवर, आश्चर्य है कि इतना होते हुए भी आप धनंजयके नामकी रटंतको नहींछोड़ते हैं । मैंने तो संसारमें आपके मोहका महत्व एक निराला ही देखा जो आप मरे हुए अर्जुनको निद्वंद हुए याद करते रहते हैं।
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy