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पाण्डव-पुराण ।
चक्रवर्तीकी लक्ष्मीको सुख-चैनसे भोगने लगा । उसका मन हमेशा भोगोंसे भरपूर रहता था। जिस समय वज्रायुध छहों खंडका निर्विघ्न राज्य करता था उस समय विजयार्द्धकी दक्षिण श्रेणीमें शिवमन्दिर नाम नगरका विमलवाहन नाम राजा था। उसकी प्रियाका नाम विमला था। वह शुभ लक्षणोंवाली थी। उसके कनकमाला नाम एक पुत्री हुई । वह कनकशान्तिके साथमें ब्याह दी गई । स्तोकसारपुरके राजा समुद्रसेन और उसकी रानी जयसेनाके एक वसन्तसेना नाम कन्या थी। वह भी कनकशान्तिके साथ व्याही गई । इन दोनों भार्याओंको पाकर कनकशान्ति अमनचैनसे सांसारिक सुख भोगने लगा। एक दिन कनकशान्ति कुमार अपनी दोनों भार्याओंको साथ लेकर क्रीड़ाके लिए इनमें गया था। वहाँ उसने विमलप्रभ नाम मुनीश्वरको देखा और उन्हें नमस्कार कर उनसे धर्मका उपदेश सुना । एवं धर्मको सुन कर उसका मन वैराग्यसे लिप्त हो गया और उसी समय उसने जैनेन्द्री दीक्षा धारण कर ली। अपने पतिको दीक्षित हुआ देख कर कनकमाला और वसन्तसेना भी विमला नाम अर्जिकासे जिनदीक्षा लेकर तप करने लगी । ग्रन्थकार कहते हैं , कि कुलवती स्त्रियोंको ऐसा ही करना चाहिए।
एक दिन कनकशान्ति योगी सिद्धाचल पर ध्यान लगाये हुए था। वहाँ उसे विद्याधरोंने बड़े उपसर्ग किये । पर वह उन उपसर्गोंसे रंचमात्र भी न टला, जिससे उसे केवलज्ञान हो गया-वह केवली हो गया अपने पोतेको केवलज्ञान हुभा देख कर वज्रायुध चक्रवर्ती भी संसार-देह-भोगोंसे विरक्त हो गया । और सहस्रायुधको राज-पाट सौंप कर, घरसे निकल, क्षेपंकर भगवानके पास जा दीक्षित हो गया-उसने दीक्षा लेली और सिद्धाचल पर एक वर्षके लिए प्रतिमायोग धारण कर वह ध्यानस्थ हो गया । इस समय वज्रायुधके पैरों तक सॉपोंने वामी वना ली थी और कंठ तक उसे वेलोंने वेढ़ लिया था। उधर अश्वग्रीवके रत्नकंठ और रत्नायुध दो पुत्र संसारमें परिभ्रमण कर अतिबल और महावल नाम दो असुर हुए थे । वे वज्रायुधके पास आये और उसे बड़ा कष्ट देने लगे। } एवं रंभा और तिलोत्तमाका रूप बना बना कर उसका ध्यानसे मन चलानेको उद्यत हुए; परन्तु वह ध्यानसे विल्कुल ही नहीं चला । यह देख वे चुप-चाप भाग गये । इसके बाद वे प्रगट होकर वज्रायुधके पास आये और उसकी पूजा-भक्ति एवं उसे नमस्कार कर स्वर्गको चले गये।