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________________ २९४ . पाण्डव-पुराण। दिशाकी ओरवाले नगरके फाटक पर पड़ाव डाल दिया । और, वहाँ पर जो विराटका, श्रेष्ठ.गोकुल चरता फिरता था उस पर उसने अपना अधिकार जमा लिया। यह देख उत्तरकी ओरका पुर क्षोभ-मय हो गया। वहाँ सब जगह भयने अपना अड्डा जमा लिया। वहॉके सब लोग भयके मारे विह्वलसे हो गये। और चिन्ता-रूपी वन पातकी ताड़नासे शोकाकुल होकर वे मन-ही-मन सोचने लगे कि हम इस वक्त क्या करें, कहाँ जायें, एवं इस समय हमारी रक्षा कैसे हो। आखिर निराश होकर वे कहने लगे कि क्या करें हमारा कोई भी सहायक नहीं है । इसीका यह परिणाम है कि वैरीने हमारा साराका सारा ही गो-कुल छीन लिया है। यदि हमारा कोई सहायक होता तो ऐसा दृश्य कभी भी हमारे देखनेमें न आता । यह देख कर द्रोपदीने अर्जुनकी ओर उँगुली उठा कर उन लोगोंसे कहा कि देखो यह बड़े वीर हैं और रण-कलाके ज्ञाता विद्वान हैं । इन्होंने कई बार पार्थका सारथीपन किया है । तुम इनकी शरण लो। यह तुम्हारी रक्षा करेंगे। द्रोपदीके वचनोंको सुन कर विराटके पुत्रने उस नटवरको एक महारथ दिया और आप स्वयं भी हाथी, घोड़े, रथोंकी सेना सहित नगरसे वाहिर निकला । और वाहिर आकर उसने ज्यों ही दुर्योधनकी असंख्य सेना पर दृष्टि डाली त्यों ही उस चंचल वुद्धिके देवता कूच कर गये और वह एक क्षणभरमें ही वहॉसे भाग-निकलनेका मार्ग देखने लगा। वह अर्जुनसे बोला कि मैं तो इस रणसे बिल्कुल ही सन्तुष्ट हो गया, मुझे अब युद्धकी इच्छा नहीं है । शत्रुकी सेना बड़ी प्रबल है । देखो, यह घोड़ोंकी सेना कितनी भारी और विकट है । मै तो इस प्राणहारी युद्धमें एक क्षण भी नहीं टिक सकता हूँ। इतना कह कर वह राजपुत्र चुप हो गया और किसी बातका उत्तर न देकर वह वहाँसे एक दम भाग खड़ा हुआ । उसे इस प्रकार भागते देख अर्जुनने उससे स्पष्ट शब्दोंमें यों कहा कि आप युद्धमें वैरियोंको पीठ देते हैं और अपने कुलको लजाते हैं ! तुम्हारे पुण्य-प्रतापसे अर्जुन जैसे वीरका सारथी मैं तुम्हें मिल गया फिर भी तुम कातर होते हो ! यह तुम जैसे क्षत्रियोंको उचित नहीं । युवराज ! डरो मत और मेरे साथ रणमें इन उद्धत शत्रुओंकी उद्धतताका इलाज करो । अर्जुनने उसे इस प्रकार यद्यपि बड़ा साहस दिलाया; परन्तु उसने न माना और युद्ध-स्थल छोड़ भागनेके लिए स्वयं अपना रथ वापिस फेर लिया । यह देख अर्जुनने फिर - कहा कि युवराज ! कायरोंकी भाँति डर कर भागो मत । मेरी बात सुनो । मैं वही प्रसिद्ध अर्जुन हूँ जिसका नाम सुन कर शत्रु कॉप उठते हैं। इसमें तनिक भी सन्देह
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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