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________________ उन्नीसवाँ अध्याय । om een mannana ww www ama woman na मत करो । अब स्थिर होइए और भयको हृदयसे निकाल कर शत्रु-समूहका शिर छेदनेके लिए अपने समुत्कर शरोंको छोडना शुरू कीजिए । थोड़ी देरके लिए भला । मेरा बल ही तो देखो कि मैं क्षण भरमें ही दुर्योधनकी सेनाको कैसी भयभीत और तितर बितर किये देता हूँ। अर्जुनके इन बचनोंको सुन कर भी अविश्वासी और भयभीत लोगोंने विश्वास नहीं किया कि यह 'वही अर्जुन है। वे इसी विचारमें उलझ रहे थे कि पार्थने घोड़ोंको चलानेमें तत्पर हुए विराट-पुत्रको अपना सारथी बना कर अति शीघ्रतासे रथको शत्रुकी ओर दौड़ाते हुए कहा कि युवराज ! तुम रणांगणमें शीघ्रतासे रथ चलाओ और मैं शरोंके तीक्ष्ण महारसे अभी शत्रुओंको धराशायी किये देता हूँ। मैं शत्रुओंका नाश कर, यश सम्पादन कर, जय-सम्पन्न हो, पुण्य सम्पत्ति लेकर ही अपने पुरको जाऊँगा। इसके बाद अर्जुन वैरियोंसे यह कहता हुआ कि ठहरिए, स्थिर होइए, रथमें बैठ कर शत्रुकी ओर चला। इधर शत्रु-समूहको निरुत्तर करता हुआ महत्वशाली उत्तरकुमार भी बड़े वेगसे रथको चलाये लिये जा रहा था । पार्थके साहससे खुश होकर ज्वलन नाम देवने पार्थको नंदिघोष नाम एक समर्थशाली रथ भेंट किया । अर्जुन भी देवताधिष्ठित उस रथ पर सवार हो, उत्तरको सारथी बना शत्रु-समूहका नाश करनेके लिए युद्ध-स्थछमें आगे बढ़ा । उसको इस प्रकार निर्भयतासे आगे बढ़ता देख फर द्रोणचार्य अचम्भेमें पड गये और वह क्रूर स्वभाववाले उन धनुर्धर कौरवोंसे बोले कि कौरवो, अव भी कुछ नहीं गया, युद्धकी प्रतिज्ञाको छोड़ कर आप लोग सन्धि कर लीजिए, जिसमें कि आपको सुख हो । नहीं तो आप लोग ही बताइए कि इसमें कौन राजे ऐसे समर्थ हैं जो कि पार्थके तीक्ष्ण चाणोंको सह सकेंगे। क्या कहीं दावानलके जलते हुए कोई काठ बिना जला रह सकता है । मेरी तो यही सम्मति है कि अब आप लोगोंका कपट खुल गया है, अतः आप लोग कपट, गो-धन और युद्धकी प्रतिज्ञाको तो छोड़ कर और परस्परमें प्रीति करके अपने घरको चलिए । क्या आप लोगोंको खयाल नहीं है कि घरसे निकलते समय सैकडों खोटे अशुकन हुए थे, जिनसे सभी अकुशल ही अकुशल झलकता था । अतः युद्ध न छेड़ कर यही उचित समझ पड़ता है कि आप लोग सन्धि करके घर चलें । द्रोणके इन' वाक्योंको सुन कर दुर्योधनकी आँखें क्रोधसे लाल रक्तके जैसी हो गई । वह अपने भटोको बढ़ते हुए देख कर द्रोणसे बोला कि नय-नीति-विहीन द्रोण, तुम ऐसे विद्रोहके वचन कहते हो ! भला यह वैरियोंकी तारीफका अवसर है । जान पड़ता है कि तुम
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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