________________
अठारहवाँ अध्याय ।
२७ इस प्रकार अपने शर-कौशलसे धनंजयने चित्रांगदके छोड़े हुए सभी बाणोंको जब निवार दिया तब जयलक्ष्मी स्वयं ही उसके हाथमें आ गई और लोग उसे साधुवाद देने लगे । यह देख पार्थके शिष्योंने उसकी भक्तिसे खूब पूजा-स्तुति की । इसके बाद पार्थने दुर्योधनको विश्वास दिला कर प्रसन्न किया और वाणोंकी सीढ़ी रच कर दुर्योधनको पहाड़के शिखरसे उतारा । इसके बाद उसे युधिष्ठिरके पास लाकर उसने बंधन रहित कर दिया। सच है कि बंधनसे सभीको खेद होता है । इस उदारताके बदले दुर्योधनने युधिष्ठिरकी बहुत बहुत स्तुति की और उन्हें प्रणाम किया। युधिष्ठिरने भी उससे कुशल पूछा, जिसके उत्तरमें दुर्योधनने कहा कि नाथ, मुझे बंधनका उतना दुःख नहीं हुआ जितना कि छूटने पर हुआ है । यह छुटकारा मुझे बहुत ही खटकता है। क्योंकि इससे मुझे नीचा देखना पड़ा है और पडेगा भी। महाराज मानभगके दुःखके बराबर प्राणियोंके सुखका घातक दूसरा नहीं है। यही एक संसारमें भारी दुःख है, जिसके मारे जीव जीते जी ही मरेके जैसे हो जाते है।
इसके बाद युधिष्ठिरने उसे उसके नगरको भेज दिया । यद्यपि वह सकुशल अपनी राजधनीमें पहुंच गया पर उसके हृदयमें मानभंगकी शल्य भालेकी नोंक जैची चुभ रही थी। अतः उसने मन-ही-मन सोचा कि हाय, मेरा यह मनुष्य जन्म क्षणमें ही व्यर्थ हो गया। कहाँ तो मैं कौरवोंका स्वामी और कहाँ मेरे उन्नत विचार । परन्तु यह सब बातें उसने मुझे रणमें छोड़ कर पद-दलित कर दी। मेरा सव कुछ महत्व धूलमें मिला दिया गया। मुझे जितना रणमें पकड़े जानेका दुःख नहीं उतना अर्जुनके द्वारा छुड़ाये जानेका दुःख है। नहीं मालूम प्राणोंको हरनेवाले मेरे इस दारुण दुःखको कौन निवारण करेगा । मुझे विश्वास है कि जो कोई महापुरुप इन तेजस्वी पांडवोंको यमालय भेजेगा वही महाभाग मेरी इस पराभव-रूपी शल्यको भी मिटा सकेगा । उसने पुकार कर कहा कि क्या संसारमें कोई ऐसा पुरुष है जो मेरे इस दुःखको दूर करे । मैं उसे अपना आधा राज्य दूंगा।
यह सुन बुद्धिशाली कनकध्वज राजाने कहा कि महाराज, मै विश्वास । दिला कर कहता हूँ कि मैं मैं आजसे सातवें दिन अवश्य ही पांडवोंका काम
तमाम कर दूंगा। यदि न करूं तो प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अपने आपको अमि देवकी भेंट कर दूंगा।
इसके बाद वह दुर्बुद्धि वहाँसे निकला और वनमें ऋषियोंका जहाँ एक