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________________ २७८ पाण्डव-पुराण। rammmmwwwmanormonam . . om wwwwwenwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww.ammmmmmm आश्रम था वहाँ पहुँचा । वहाँ वह उद्धत कृत्या विद्याको साधने लगा और होम-मंत्र-आदि विधि करने लगा। जब इस बातकी खबर नारदजीको हुई तब वे उसी समय पांडवोंके पास आये और उनके हितकी वाञ्छासे मधुर शब्दोंमें बोले कि आजसे सातवें दिन कृत्या विद्याके प्रभावसे दुरात्मा कनकध्वज तुम लोगोंको मारना चाहता है और इसी लिए वह कृत्या विद्याको वनमें साध रहा है। नारदके वचनोंको सुन कर पवित्र-घुद्धि धर्मात्मा युधिष्ठिरने अपनी सारी इच्छाओंको एकदम रोक दिया और वह मेरुवत् निश्चल होकर धर्म-ध्यान करने लगे । उन्होंने परिग्रहसे ममता छोड़ कर नाकके अग्रभाग पर दृष्टि जमाई । वह संसारसे एकदम विमुख-उदासीन हो गये और अपने मन पर उन्होंने पूरा पूरा अधिकार जमा लिया । वह आत्म-स्वरूपकी चिन्तनामें ऐसे उलझे कि सव तरफसे मनको मोड़ कर आत्मामें ही लीन हो गये। उन्होंने अपने भाइयोसे कहा कि भ्राटगण, धर्म ही एक ऐसी वस्तु है जिसके प्रभावसे प्राणियोंके सब मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं । अत: आप लोग भी अपने मनोरथोंकी सिद्धि के लिए एक धर्मका ही अद्वितीय शरण ग्रहण करें । देखिए जिस धर्मको परलोकके लिए सुर-असुर आदि सब सेवन करते हैं, करते थे और सदा काल करते रहेंगे वह धर्म विश्वास रक्खो कि अवश्य ही तुम्हारे विनोंको दूर, करेगा और तुम्हें सव सुख देगा | मेरा तो यही विश्वास है कि धर्मके सिवा जीवोंको और कोई भी ऐसा नहीं जो सुखी करे या सुख दे । इस धर्मके प्रभावसे आपत्ति भी पुरुषों के लिए सम्पत्ति-रूप हो जाती है और सुख देती है। कौन नहीं जानता कि ग्रीष्मके सुरजकी किरणें भी वृक्षोंमें फल-फूल रूप ऋद्धि पैदा करती है। इस प्रकार युधिष्ठिर धर्मकी प्रशंसा कर रहे थे कि इसी समय अपने आसनके कंपित होनेसे एक अवधि-ज्ञानी देवको पांडवोंके इस उपद्रवकी खवर लगी। वह उसी समय वहाँ आया और बोला कि मैं नष्ट होते हुए पांडवोंके कुलकी रक्षा करूँगा; उनें तिलमात्र भी दुश्व न होने दूंगा। इसके बाद वह प्रगट होकर पांडवोंसे बोला कि तुम लोग ऐसे वेफिक्र होकर मेरे स्थानमें क्यों ठहरे हो। क्या तुम लोग मेरे महात्म्यको नहीं जानते; और न पहले क्या कभी तुमने उसे सुना ही है । देखो, मेरा महात्म्य ऐसा है कि मेरे कोपके मारे कोई मनुष्य पृथ्वी
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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