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________________ ७८ पाण्डव-पुराण | wwwwwwwwwwnnnnn. प्रतींद्र हो गया और वहाँ पूर्व भवके बड़े भाई इन्द्रके साथ सोलहवें स्वर्गके अपूर्व सुख भोगने लगा | दहॉकी आयुको पूरी कर पहले वहाँसे इन्द्र चया और जम्बूद्वीप के पूर्वविदेहके मंगलावती देशमें रत्नसंचयपुरके राजा क्षेमंकरकी रानी कनकमालाके गर्भ से वज्रायुध नाम उत्तम लक्षणोंवाला पुत्र उत्पन्न हुआ । वह आधान, प्रीति, सुप्रीति, वृत्ति और गोद इत्यादि क्रियाओंसे युक्त था । उसका मुख-चन्द्र अपनी प्रभाके द्वारा अंधेरेको दूर करता था | नवीन अवस्थामें ही उसका व्याह राजलक्ष्मी नाम राजपुत्रीके लाथ हो गया 1 तथा अनंतवीर्यका जीव जो मतीन्द्र था, वहाँसे चया और वज्रायुध तथा राजलक्ष्मीके यहाँ पुत्र उत्पन्न हुआ । उसका नाम रक्खा गया सहस्रायुध । सहत्रायुधकी भामिनीका नाम श्रीषेणा था । वह साक्षात् लक्ष्मी ही थी; सुन्दर रूप लावण्यवाली थी । सहस्रायुध और श्रीषेणाके कनकशान्ति नाम पुत्र हुआ । वह ताये हुए सोनेकी कान्तिके समान कान्तिवाला था । इस प्रकार पुत्र-पौत्र आदिके साथ क्षेमंकर राजा सुखचैन से राज सुख भोगता था एक दिन दूसरे स्वर्गके इन्द्रने अपनी सभा वज्रायुधके दृढ़ सम्यक्त्वकी खूब ही प्रशंसा की और कहा कि वज्रायुध गुणोंका आधार है । सम्यक्त्वके निमित्त से उसके सभी गुणका विकाश हो गया है । पर यह प्रशंसा विचित्रचूलक नाम एक देवसे न सही गई और वह पंडितका भेष बना कर वज्रायुधके पास पहुँचा; और बादकी इच्छासे वह उससे कहने लगा कि राजन् ! सुना है कि आप जीवादि तत्वों के विचार में बड़े पण्डित हैं । कहिए कि जीव आदिसे पर्याय भिन्न होती है या अभिन्न ? यदि भिन्न होती है तब तो पर्याय निराधार और पर्यायी कूटस्थ ठहरता है, सो ये दोनों ही बातें नहीं बन सकतीं और शून्यवाद आकर उपस्थित होता है। और यदि कहो कि जीव आदिसे पर्याय अभिन्न होती हैं तो यह पर्याय है और यह पर्यायी ( जीवादि) है, यह भेद व्यवहार ही सर्वथा मिटा जाता हैं । इस लिए जव कि एकका दूसरेमें समावेश नहीं होता, तब जीव आदि अथवा पर्याय दोमेंसे एकको ही मानना योग्य है । यदि इस पर यह कहो कि द्रव्य तो एक ही हैं; केवल उसकी पर्यायें अनेक देख पड़ती है तो आपके कहनेसे सारा संसार एक रूप ही हो जायगा और जो यह नाना रूप देख पड़ता है वह कुछ भी नहीं बनेगा । एवं लोगोंको पुण्य-पापका फल भी नहीं मिलेगा और बन्ध भी के अभाव में मोक्ष भी नहीं बन सकेगा । एवं यह प्रश्न उठता है न होगा; तथा कि वह द्रव्य ~wwwww~
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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