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________________ ७७ wwwvvvm wwwwwww पाँचवाँ अध्याय। पाँचवाँ अध्याय । wuruinew mmmmmmmmmmmmmmmmmmnanam उन अजितनाथ भभुकी में विधिपूर्वक वन्दना-स्तुति करता हूँ जो कामदेवको जीतनेवाले और अपराजिन-किसीसे नहीं जीते जानेवाले-है; तथा जीतने योग्य सभी शत्रुओं पर जो विजय-लाभ कर चुके हैं, और महान पुरुष जिनकी पूजा-स्तुति करते हैं। इसके बाद तीन खंडके राज-पाटको पाकर अनंतवीर्यने सब प्रकारके सुखोंको अमन-चैनसे भोगा और आयुका अन्त होने पर वह पापके फलसे रत्नप्रभा नाम नरककी पहली पृथ्वीमें नारकी हुआ । तथा अपराजित अजितसेनको राज-काज सँभला कर यशोधर मुनिके पास दिगम्बर हो गया और अवधिज्ञान-रूपी निधिको प्राप्त कर उसने एक महीनेके लिए संन्यास धारण कर लिया, जिसके प्रभावसे वह अच्युत स्वर्गका स्वामी इन्द्र हुआ। और वह अनंतवीर्यका जीव जो कि पहले नरकमें नारकी हुआ था, पूर्वभवके पिता धरणेन्द्रके सम्बोधनेसे सम्यग्दृष्टि हो गया। उसने मनकी चपलताको छोड़ कर धर्म पर अटल विश्वास जमाया और संख्यात वर्षकी आयुको पूरी कर वहाँसे निकला और फिर इसी मध्यलोकमें आ गया। इसी भरतक्षेत्रके विजयालकी उत्तरश्रेणीमें एक व्योमवल्लभ नाम नगर है । वहाँका राजा मेघवाहन था । उसकी रानीका मेघमालिनी नाम था । वह अनंतवीर्यका जीव नरकसे आकर उनके यहाँ मेघनाद नाम दोनों श्रेणियोंका स्वामी पुत्ररत्न पैदा हुआ। एक समय वह सुमेरुके नंदनवनमें गया और वहाँ मज्ञप्ति विद्याको साधने लगा । इतनेमें उसके ऊपर उसके पूर्वभवके बड़े भाई अच्युत इन्द्रकी दृष्टि पड़ी । तव प्रेमके वश हो वह आया और उसने मेघनादको खूब समझाया । पुण्ययोगसे उसके समझानेसे वह समझ गया और दीक्षित हो नंदन नाम पर्वत पर प्रतिमायोग लगा कर ध्यानस्थ हो गया। पाठकोंको अभी अश्वग्रीवकी कथा भूली न होगी । उसका छोटा भाई सुकंठ संसार-समुद्रमें चक्कर लगा कर असुर जातिका देव हुआ था । दैवयोगसे वह वहाँसे निकला और मेघनाद मुनिको ध्यानस्थ देख उसे बड़ा क्रोध आया । उसने मुनिको घोरातिघोर उपसर्ग किये । पर वह रंचमात्र भी उन्हें न डिगा सका। इस समय मुनिने उपसर्गोको समताभावसे सहा जिससे वह अच्युत स्वर्गमें जा
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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