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पाण्डव-पुराण |
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होनेसे जो पुराने मार्ग लुप्तमाय हो गये थे उनको जिन सत्पुरुषोंने फिरसे प्रचलित किया है, उनमें नयापन डाला है वे सारे संसारके पूज्य हैं। ऐसे पुण्य प्रसंग पर अर्ककीर्तिने जो वहाँ अन्याय से लड़ाई की उससे उसने युग- पर्यन्त के लिए मेरे यशमें धन्वा लगा दिया; अपयशी पुरुषोंमें मेरी गिनती करवा दी। इस प्रकार चक्रवर्तीने दूतको समझा-बुझा कर वापिस लौटा दिया। उसने वापिस आकर अकंपन और जयको नमस्कार कर चक्रवर्तीके जैसे तैसे वचन उन्हें कह सुनाये ।
इस प्रकार चक्रवर्तीका उत्तर सुन वे बड़े प्रसन्न हुए। इसके बाद कुछ काल तक जयकुमार और सुलोचनाने वहीं सुखसे निवास कर बाद अपने नगरको जानेकी इच्छा की और अकंपन महाराजको अपनी इच्छा कह सुनाई । अकंपनने हाथी घोड़ों आदि से खूव सन्मान कर उन्हें विदा किया और साथमें हेमांगद आदि राजको भेजा। सुर और बन्धुवर्ग से घिरे हुए दोनों दम्पति गंगातट पर आये । वहाँ आकर उन्होंने सब सेनाको तो वहीं ठहरा दिया और आप कितने ही उत्तम पुरुषोको साथ लेकर अयोध्या नगरीको गये । वहाँ नगरीसे वाहिर आकर अर्ककीर्ति आदिने उनकी खूब अगवानी की और उन्हें वे नगरीमें लाये । जिस समय जयने अर्क कीर्ति आदि के साथ-साथ नगरीमें प्रवेश किया उस समय ऐसा भान होता था कि बहुतसे देवतोंके साथ-साथ इन्द्र ही अमरावतीमें प्रवेश कर रहा है। वे सीधे राजसभायें गये और सभानायक चक्रवर्तीको नमस्कार कर उनके दिखाये हुए स्थान पर जा बैठे । चक्रवर्ती ने कहा कि जय, तुम चन्द्रवदनी वधूको यहाँ क्यों नहीं लाये | हम उसके देखने को बहुत ही उत्सुक हैं। क्या करें, अकंपनने तो इस विल्कुल नये विवाह - महोत्सबमें हमें निमंत्रण ही नहीं दिया । बताओ तो सही क्या यह बात ठीक है । क्या उन्होंने हम लोगोंको बन्धुओंसे बाहिर कर दिया है । अस्तु जो हो, परन्तु तुम्हारे लिए तो मैं पिताके तुल्य हॅू; तुम्हें तो मुझे अगुआ बना कर ही अपना विवाह करना था, पर तुम भी हमें भूल गये; तुमने भी तो निमंत्रण नहीं दिया । इस प्रकारकी अपूर्व अपूर्व बातें कह कर चक्रवर्ती ने उन्हें सन्तुष्ट किया और उनका योग्य आव आदर किया । इसके बाद जय महामना चक्रवर्तीको नमस्कार कर वापिस लौट आये; तथा हाथी पर सवार हो शीघ्र ही गंगातट पर जा पहुॅचे। वे प्राणोंसे भी कहीं अधिक प्यारी सुलोचनाको देखने लिए उत्सुक हो रहे थे। इतने में ही उन्होंने सुखे वृक्षकी डाली पर सूरजकी ओर मुहॅ किये बैठे हुए एक कौवेकी वोली सुनी । उसे सुनते ही उन्हें