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________________ तीसरा अध्याय। ४७ अपनी प्रियाके सम्बन्धमें कोई भारी अनिष्टकी शंका हुई और मूर्छ आ गई। वे वे होश हो गये । उनकी यह दशा देख उसी नागकुमारने आकर शीतल-सुगन्धित वस्तुओंके उपचारसे उन्हें सचेत किया और कहा कि आप सुलोचनाकी चिन्ता न करें; वह सब तरहसे सुखी है । जयने उसके वचनों पर विश्वास कर शीघ्रताके कारण विना घाटके ही ऊभट मार्ग द्वारा हाथीको गंगामें उतार दिया। हाथीके दॉत सुन्दर और चमकीले थे। वह जलमें सूंड उठाए ऐसा भान होता था मानों तैरता हुआ मगर ही है । पाठक भूले न होंगे कि काकोदर मर कर गंगामें कालीदेवी हुआ था। धीरे धीरे जब वह हाथी बीच धारमें पहुंचा तब उस कालीदेवीने उसे रोक दिया, जिससे वह आगे जानेको असमर्थ होगया। सच है अपने स्थान पर निर्वल भी बल दिखाने लग जाता है । ज्यों ही हाथीको कालीने पकड़ा, त्यों ही वह जलमें डूबने लगा। उसको डूबता हुआ देख कर, हेमांगद आदि जो गंगातट पर खड़े थे, शीघ्र ही गंगामें कूद पड़े। उधर सुलोचना भी आहार, शरीर आदिसे ममता भावको छोड़ कर सभी उपद्रवोंको दूर करनेवाले " णमो अर्हताणं " मंत्रका जाप करने लगी और बहुतसे सखीजनोंके साथ-साथ वह भी गंगाके भीतर उतर पड़ी। इसी गंगातट पर एक गंगा नाम देवी रहती थी । सहसा आसनके कम्पायमान होनेसे सव - हाल जान कर वह उसी वक्त वहाँ आई और गंगासे सबको सही सलामत निकाल कर उसने किनारे पर पहुंचा दिया । एवं उसने दुष्ट कालीको खूब ही ताड़ना दी और उसे जयकुमारके पास लाई । सच है पुण्य-योगसे सब जगह जीत ही जीत होती है । इसके बाद गंगादेवीने नदीके तट पर सभी सम्पत्तिसे भरपूर एक मनोहर महल बनाया। और उसमें एक मनोहर सिंहासन पर सुलोचनाको वैठा कर उसने उसकी बड़ी भक्तिसे सेवा-पूजा की। इसके बाद वह बोली कि वसन्ततिलक नाम उद्यानमें जब मुझे साँपने काट खाया था तब आपने मुझे नमस्कार मंत्र दिया था । अत: आपकी ही कृपासे मैं यहाँ गंगाकी अधिष्ठात्री और सौधर्म इन्द्रकी नियोगिनी देवी हुई हूँ । देवी ! यह सव आपके दिये हुए मंत्रसे ही हुआ है, अत: मैं आपकी चिर कृतज्ञ हूँ। यह सव. सुन जयकुमारने सुलोचनाको कहा कि प्रिये ! इसकी सारी कहानी कहो। उत्तरमें सुलोचनाने यों कहना आरम्भ किया कि विंध्याचल पर्वत पर एक विध्यपुरी नाम नगरी है । वहाँ विध्यध्वज राजा राज्य करते है। उनकी रानीका नाम प्रियंगुश्री है । उनके एक विध्यश्री नाम कन्या थी। पर उतर पड़ा।
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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