SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौथा अध्याय | ७३ दोनोंने विपुलमति उनकी आयु अव श्रद्धाभक्ति के साथ अर्कतेजको और द्वारा सेवित वे दोनों अपने अपने नगरको चले आये और वहॉ सुखामृतका पान करते हुए सुखसे काल विताने लगे । एक वार इन और विमलमति नाम मुनीश्वरोंके मुख-कमलसे यह सुना कि केवलं एक ही महीनेकी शेष रह गई है । यह सुन वे और भी तन- मनसे धर्मपालन करने लगे । इसके बाद अमिततेजने श्रीविजयने श्रीदत्त को राज-पाट सौंप कर भक्तिसे अष्टाहिक पूजा की और दोनों नंदनवन के पास के चंदनवनमें गये । वहाँ उन्होंने मुनियोंके समागममें प्रायोपगमन नाम संन्यास धारण किया और शान्त परिणामोंसे प्राणोंका त्याग कर वे स्वर्गमें देव हुए। अमिततेजका जीव तेरहवें स्वर्गके नंद्यावर्त विमानमें रविचूलक और श्रीविजयका जीव उसी स्वर्गके स्वस्तिक विमानमें मणिचूलक नाम देव हुआ । वहाँ उनकी बीस सागरकी आयु हुई । आयुपर्यन्त सुख भोग कर वे वहाँसे चय इसी जम्बूदीपके पूर्व विदेहमें वत्सकावती देशकी प्रभाकरी नगरीमें स्तिमितसागर राजाके यहाँ पुत्र हुए। स्तिमितसागर की दो रानियाँ थीं; एक वसुंधरा और दूसरी अनुमति । इनमें से वसुंधराके गर्भ से रविचूलकका जीव अपराजित और अनुमतिके गर्भसे मणिचूलकका जीव अनंतवीर्य पुत्र हुआ। वे दोनों जगतके नेत्र-कमलोंको मकुलित करनेवाले और सदाकाल ही उदित रहनेवाले सूरज थे; लक्ष्मीको आनन्द देनेवाले और धीरवीर थे । जव वे दोनों युवा हुए तब स्तिमितसागर किसी कारण - वश संसार-भोगोंसे विरक्त हो, पुत्रों पर राज-भार डाल, वनमें जा स्वयंप्रभ गुरुके पास दीक्षित हो गया । दैवयोगसे एक दिन स्तिमितसागरने धरणेन्द्रकी विभूति देखी और उसके पानेका निदान किया । निदानके प्रभावसे वह मर कर धरणेन्द्र ही हुआ । ग्रन्थकार कहते हैं कि आत्मिक सुखको नष्ट करनेवाले निदान बंधको धिक्कार है । इधर अपराजित और अनंतवीर्य पृथ्वीका भरण-पोषण करते हुए इन्द्र और प्रतीन्द्रके जैसे सुशोभित होते थे। एक दिन उनकी सेवामें किसी राजाने वर्वरी और चिलातिका नामकी दो नर्तकी भेजीं । वे बहुत ही मनोहारी सुखदाई नृत्य करती थीं । उनका नृत्य देखनेको और और बहुत से राजोंके साथ वे दोनों भाई भी नाट्यशाला में बैठे हुए थे। उस समय उनकी अपूर्व ही शोभा थी । दैवयोग से उसी समय उन्हें देखने को वहाँ नारद आये; परन्तु अपराजित और अनन्तवीर्य - का उपयोग नृत्यकी ओर लग रहा था, इस लिए उन्होंने नारदको न देख पाया । पाण्डव-पुराण १०
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy