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________________ २०४ पाण्डव-पुराण । वहती हुई, नौका वीच धारमें पहुंच गई और वहाँ पहुँच कर वह अटक गई , यद्यपि वह चंचल थी; परन्तु गतिके रुक जानेसे विल्कुल ही अचल हो गई। उस वक्त धीवरने बहुत ही प्रयत्न किया; परन्तु वह विल्कुल ही न चली-एक . पैंड भी आगे वह न बढ़ सकी । वह ऐसी हो गई मानों कर्मके द्वारा कील ही दी गई हो। बेचारे धीवरने नाना भॉतिके सैकड़ों उपाय किये पर वह विल्कुल ही न चली-जैसीकी तैसी अचल वनी रही; जिस तरह कि दंडोंके द्वारा मारी-पीटी गई हठी स्त्री एक पाँव भी आगे नहीं बढ़ती; वहींकी वहीं मचला करती है । या यों कहिए कि जिस तरह कालज्वरके वश होकर क्षीण हुआ शरीर विल्कुल ही नहीं चल सकता, चाहे उसके लिए कितने ही उपाय क्यों न किये जावें । उसी तरह नौका चलानेके लिए वह धीवर सव यत्न कर करके थक गया, परन्तु नौका वहाँसे तिलमात्र भी न बढी ।। यह देख कर पांडवोंने कहा कि भाई, वात क्या है। यह नौका इतने उपायोंसे भी क्यों नहीं चलती। यह इस समय ऐसी अटक कर क्यों रह गई; जैसी कि उत्तम शास्त्रोंमें खोटी बुद्धि अटक कर रह जाती है-आगे नहीं चलती। पांडवोंके वचनोंको सुन कर उत्तरमें धीवरने कहा कि स्वामिन, इस जगह एक जलदेवी रहती हैं । उसका नाम है तुंडिका। वह, जगत्मसिद्ध और अमृतका आहार करनेवाली है । इस समय वह इस नौकाको रोक कर आप लोगोंसे अपने नियोगके अनुसार भेंट मॉगती है। अतः आप इसे इसका हक देकर नौकाको चलती करवा दीजिए । प्रभो, देखिए- इसमें न तो आपका दोष है और न मेरा ही । किन्तु यह अपना नियोग (इक ) चाहती है । न्याय भी ऐसा ही है कि हकदार लोग अपने हकको लेकर ही मनुष्योंको छोड़ते हैं । इस लिए अब आप देरी न कीजिए; किन्तु इसे इसका हक देकर यहॉसे जल्दी चलिए । और यहॉसे जल्दी चल देने में ही आपका हित है । यह सुन कर नौकाको चलानेके लिए तैयार हुए धीवरसे युधिष्ठिरने कहा कि इस समय यहाँ तो हमारे पास कुछ भी नहीं है । इस लिए यहाँसे किनारे तक चलो । वहाँ पहुँच कर हम नाना प्रकारके पकवान तैयार करेंगे और फिर यहाँ आकर आदरके साथ देवीकी भेंट चढ़ा देंगे । भला, इस वातको तुम्हीं कहो कि इस अथाह जल-प्रदेशमें हमें क्या चीज मिल सकती है ! और यदि तुम्हें कोई चीज यहाँ मिल सकती हो तो तुम्ही ला दो। और जब कोई चीज मिल ही नहीं सकती तव हम क्या भेंट कर सकते है। युधिष्ठिरके इन वचनोंको सुन कर धीवर बोला कि महाराज, देववल्लभ प्रभो, कृपा कर
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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