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तेरहवाँ अध्याय' ।
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मेरी एक बात सुनिए । वह यह है कि यह तुंडिका देवी पकवानोंसे दस नहीं होती है; किन्तु देव, इसे सन्तोष होता है मनुष्य - बलिसे । यह जब जब भूखी होती हैं तव तव मनुष्य के मांस से ही सन्तुष्ट होती है । और वस्तुओं से न जाने इसे क्यों सन्तोष नहीं होता । अतः आप भी इसे मनुष्य मांससे तुष्ट कीजिए । महाराज, देर न कर इसे जल्दी से मनुष्य - वलि देकर पार चलिए; नहीं तो वडा भारी अनर्थ होगा ।
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उस धीवरके ऐसे विकट उत्तरको सुन कर युधिष्ठिर आदि बड़े क्षोभको प्राप्त हुए । और अपनी मौतको सामने आ खडी हुई समझ कर वे यो विचार करने लगे कि अहो, जब कर्म ही टेढा है- विमुख हैतब भला हमारा दुःखसे पिंड छूट ही कैसे सकता है । और इसी लिए कहा जाता है कि संसारी जीवोंके लिए कर्म जितना बलवान् होता है संसारमें उतना बलवान दूसरा और कोई भी नहीं होता । देखो, इस दैवकी विचित्रता कि पहले तो हम लोगोंकी कौरवोंके साथ युद्ध होने पर विजय हुई और वाद जब लाक्षागृहमें आग लगा दी गई तब वहाँसे भी जीते जागते हम लोग सुरक्षित निकल आये | और इस समय उसी दैवके मेरे हुए इस नौका बैठ कर अपने आप ही मरनेके लिए इस तुंडिका के शरणमें आ गये । आश्चर्य है कि बड़े बड़े अनिटोंसे तो वच आये, परन्तु जरासे अनिष्टसे मृत्युके ग्रास वने जाते हैं । तब तो यही कहना होगा समुद्रको पार करके अब यहाँ छोटेसे पलवल ( क्षुद्र जलाशय ) में हम लोगों की मृत्यु होगी । सच है कि कर्मके आगे किसीका बल नहीं चलता है । इसके बलके आगे सभी थक कर बैठ जाते हैं । देखो, यह तो वही बात हुई कि धीवर के हाथसे किसी तरह मछली छूट पाई तो जाकर जालपें फँस गई और जालसे भी जैसे तैसे छूटी तो बगुलेने उसे अपना आहार बना लिया ।
इसके बाद युधिष्ठिरने एक दृष्टि भीमकी ओर डाली और इति कर्तव्यतासे विमूढ हुए उस धर्मात्मा ने कहा कि विपुलोदर भाई भीम, इस भय से छुटकारा होनेका कोई उपाय जान पडे तो बतलाओ । देखो, क्या तो विचार किया था और क्या अनिष्ट सिर पर आकर पड़ा है । यह तो वही बात हुई कि विचारा ब्राह्मण राज-पुत्रीकी इच्छासे तो घर बाहर हुआ और रास्तेमें उसे खा लिया व्याघ्रने । अतः इस विमको दूर करने का कोई उपाय करो; और सो
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