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________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww २८४ पाण्डव-पुराण । . पूजा जाता था। पांडव उसके पास गये । उसने भी उनका यथायोग्य आदर किया और बाद उनकी इच्छा जान कर उन्हें उनके योग्य कामों पर नियुक्त कर दिया । वे भी उस चतुर और न्याय-मार्ग-गामी राजाको अपने अपने । कामोंमे खुश करते हुए कुशलतासे काल विताने लगे। इस प्रकार वहाँ उनके बारह महीने बीत गये । उधर पांचालीने भी विराटकी रानी सुदर्शनाको खुश कर अपना समय सुखसे पूरा किया। चूलिका नाम पुरीके राजाका नाम चूलिक था और उसकी प्रियाका नाम चिकना था। उसके नेत्र खिले हुए कमलके जैसे मनोहर थे । चूलिक और विकचाके कीचक आदि सौ पुत्र थे। वे सब गुणी थे और विराटके साले थे। अत: इसी वीचमें एक समय कीचक अपनी वहिनके पास विराट देशमें आया और वहाँ उसने रूप-सौन्दर्यकी खान द्रोपदीको देखा। वह उसे इन्द्रकी इन्द्राणी जैसी या लक्ष्मीके जैसी दीख पड़ी। उसे देखते ही वह उस पर जी जीनसे निछावर हो गया। उसे अब खाना-पीना, सोना-उठना आदि कुछ भी नहीं सुहाने लगा। वह सब कामोंसे उदासीन हो गया । उसको दिन रात एक मात्र द्रोपदीकी रट लगी रहने लगी। वह हमेशा द्रोपदीके ही मीठे आलापको सुनना चाहता था; उसीके अनोखे रूपको देखना चाहता था। उसीका स्पर्श करना चाहता था और उसीके मुँहकी सुगन्ध सूंघना चाहता था । सच तो यह है कि द्रोपदीके सिवाय उसे और कुछ सुहाता ही न था। जहाँ द्रोपदी जाती वह वहाँ उसके पीछे पीछे जाता और कामसे अन्धा होकर उसके साथ चाटुकार पनेकी वातें बनानेका यत्न करता । उसका यह हाल देख कर एक वार पार्थ-पत्नीने उसे खूब डाटा और उससे अतीव कटुक शब्दोंमें कहा कि कीचक, यह वात तुम्हें बिल्कुल शोभा नहीं देती । देखो सोची-समझो और कुछ विवेकस काम लो तो तुम्हें जान पड़ेगा कि यह व्यवहार अनुचित है, नीच है, निंद्य है एवं नीचोंके जैसा है। परन्तु वह इतने पर भी अपने खुशामदी चाटुकार वाक्योंसे बाज न आया। तब द्रोपदीको वड़ा क्रोध आया और उसने अतिशय कोर शब्दोंमें यों कहना आरम्भ किया कि कीचक, पर-स्त्री-लम्पट कीचक, तू मुझे अकेली मत समझ, मै अकेली नहीं हूँ। किन्तु मेरे साथ अद्भुत पराक्रमवाले पाँच गंधर्व और हैं। और देख कहीं उन्होंने तेरे इस क्षुद्र वर्तावको जान लिया तो सन्देह नहीं कि वे तुझे क्षणभरमें यमालयका आतिथि बना देंगे। इस पर कीचकने मुसक्या कर कहा कि द्रापदी, प्यारी द्रोपदी, सुनो, जिन पॉच गन्धर्वोका तुम्हें अभिमान है
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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