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पन्द्रहवाँ अध्याय । चलनेके लिए प्रार्थना की और पांडव भी राजाके स्नेह-वश नगरमें चले आये । वहाँ राजाने भोजन आदिसे उनकी खूव भक्ति की-उनका उचित आदर किया। इसके बाद राजाने भीमके साथ अपनी कन्याका विवाह करने लिए युधिष्ठिरसे प्रार्थना की । युधिष्ठिरने उसके लिए अपनी स्वीकारता दे दी । तव शुभ लममें राजाने उन दोनोंका बड़े गट-बाटके साथ विवाह कर दिया । देखो, पुण्यकी महिमा कि भीम आया तो था मिक्षाके लिए और प्राप्त हुआ उसे कन्या रत्न । राजाकी भक्तिसे पांडव बड़े सन्तुष्ट हुए।
इसके बाद पांडव कुछ दिनों तक और ठहर कर वहॉसे चल दिये और विना श्रमके वे मनोहर नर्मदा नदीको पार कर विंध्याचल पर्वतके पास आये । वहॉ दूरसे ही उनकी दृष्टि विंध्याचलके उन्नत शिखर पर बने हुए जिनालय पर पड़ी, जो नाना प्रकारकी शोभासे शोभित और कैलास पर बने हुए सोनेके मंदिर सरीखा देख पडता था। उस समय यद्यपि वे थके हुए थे, पर भक्तिके आवेशमें आकर विंध्याचलके अतीव ऊँचे शिखर पर चढ़नेको तैयार हुए और थोड़े ही समयमें वहाँ पहुँच गये । वहाँ पहुँच कर उन सत्पुरुषोंने उस चैत्यालयकी विचित्रताको देख कर बड़ा हर्प प्रकट किया । उस जिनालयके चारों ओर एक सुन्दर कोट था, जिससे उसकी अपूर्व ही शोभा थी । उसमें जाने-आनेके लिए सोनेकी मनोहर सीढ़ियाँ बनी हुई थीं । उसमें भाँति भॉतिके चित्र बने हुए थे । उसके दरवाजोंके किवाड़ बड़े सुन्दर थे। उसमें चित्र विचित्र खंभे लग रहे थे । ऐसे विशाल जिनभवनको देख कर उन्हें पहले तो बड़ा हर्षे हुआ; परन्तु जब वे किसी तरह उसके भीतर न जा सके तब दुःखसे कुछ उद्विम हुए। इसके बाद द्वारके किवाड़ खोलनेकी इच्छासे भीमने उठ कर ज्यों ही किवाडॉको हाथ लगाया त्यों ही किवाड़ खुल गये । तव पांडव जय जय ध्वनि करते हुए उस जिनालयके भीतर गये और वहाँ उन्होंने भव्य प्रतिमाओंके दर्शन किये । इसके बाद उन्होंने फकों और पुष्पोंसे उनकी पूजा की उनके आगे भक्तिभावसे अर्घ चढ़ाया और शान्त-चित्तसे उनके गुणोंका गान कर खूव स्तुति की कि हे जिनेन्द्र, आपके दर्शन करनेसे आज हमारा जन्म सफल हो गया हमें मनुष्य पर्यायका फल मिल गया । हमारे नेत्र भी सफल हो गये । हे प्रभो, आपके गुणोंका चिन्तवन करनेसे आज हमारा हृदय सफल हुआ एवं हमारी सव थकावट दूर हो गई। भगवन् , आपकी यात्रासे आज हमारे हाथ-पॉव भी सफल हो गये तथा परिणाम भी सफलीभूत हुए । अधिक