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पाण्डव-पुराण |
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वह बड़ा वलवान है, शायद कोई उपद्रव खड़ा कर दे । अत एव आप युद्धके विना ही छळसे उसका निग्रह कर डालिए । उसके वचनोंको सुन कर कर्णने उसे समझा कर टाल दिया और आप अपने महलमें चला गया ।
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इसके बाद विजयी पांडव कुछ दिन तो वहाँ और रहे बाद वहाँसे चल कर वे वैदेशिकपुरमें आये । यहाँका राजा नृपध्वजं था । वह धर्मात्मा था । उसकी रानीका नाम दिशावली था । उसका यश सब दिशाओंमें फैला हुआ था । वृषध्वज और दिशावली के एक पुत्री थी । वह बड़ी शुद्ध हृदयकी धारक थी । उसका नाम दिशानंदा था । वह आपने जघन और स्तनोंके भारसे मंद मंद चलती हुई हथिनीकी गतिको जीतती थी और अपने चन्द्रमा समान मुखसे वह सारे घरके अधेरेको दूर करती थी ।
वहाँ पहुँच कर भूखे और थके हुए पांडवोंको किसी विश्रामकी जगह छोड़ कर उत्तम गुणोंका सागर और वलशाली भीम अकेला ही भिक्षाके लिए नगरमें गया और ब्राह्मणका वेष बना वह राजाके महलके आगे पहुँचा । उस समय झरोखमें बैठी हुई शुभानना दिशानन्दाने उसे देख कर मन-ही-मन सोचा कि कहीं यह मनुष्य रूपधारी मानी कामदेव ही तो भीख मॉगनेके छलसे यहाँ नहीं आया है । क्योंकि ऐसा सुन्दर रूपशाली दूसरा कोई और तो हो ही नहीं सकता । भीमको देखते ही वह उसके रूप पर निछावर हो गई और एकटक दृष्टिसे उसकी ओर देखने लगी । उसकी यह दशा राजाको भी मालूम पड़ गई कि इस सुन्दर युवा पर पूर्ण मोहित होकर दिशानन्दाने अपना सर्वस्व भी इसे अर्पण कर दिया है । यह देख उसने भीमको बुलाया और उससे पूछा किवि, तुम यहाँ किस लिए आये हो । यदि सचमुच ही भीख माँगनेके लिए आये हो तो लो मेरी इस राजकुमारीको भीखके रूपमें ग्रहण करो । यह कह कर राजाने महान् रूपशाली, भाँति भाँतिके गहनोंसे विभूषित और लोगोंको आनंद देनेवाली दिशानन्दाको लाकर भीमके आगे खड़ा कर दिया । यह देख भीम बोला कि राजन्, इस सम्बन्ध में मैं कुछ भी नहीं कह सकता । मेरे वड़े भाई जो कुछ करेंगे वही मुझे प्रमाण होगा । इस पर राजाने पूछा कि वे कहाँ हैं | भीमने बतलाया कि वे नगर के बाहिर प्रदेशमें ठहरे हुए हैं । तव राजा भीमके साथ साथ - जहॉ पांडव ठहरे हुए थे - वहाँ गया ।
वहाँ युधिष्ठिरके पास पहुँच कर उसने उन्हें नमस्कार किया तथा स्नेहके साथ उनसे कुशल- समाचार पूछा। इसके बाद बड़े स्नेहसे राजाने उनसे नगरमें