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सत्रहवाँ अध्याय।
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सजा कर रणके लिए तैयार हुआ उसकी रणभेरीको सुन कर आये हुए देवगणको उसने चलनेके लिए आदेश दिया और वह स्वयं भी हाथमें वज्र लेकर चला । परन्तु इस समय अकस्मात् यह आकाशवाणी हुई कि "सुरेश, स्वर्गको छोड़ कर देवतोंके साथ कहाँ जाते हो। तुम अर्जुनके लिए कुछ भी विघ्न उपस्थित नहीं कर सकते । क्योंकि वह उसी पवित्र वंशका है, जिस वंशमें प्रसिद्ध और तीन लोकके स्वामी नेमिप्रभु, कृष्ण नारायण और पांडव जैसे महान पुरुष पैदा हुए हैं। इस लिए तुम अपना हठ छोड़ कर आनन्दसे अपने स्थान पर ही रहो ।" यह सुन कर सुरेन्द्र अपने स्थान पर ही रह गया । उधर अर्जुन भी सब विनोंको दूर करके प्रेमके साथ हस्तिनापुर चला आया । एवं उत्कंठित कृष्ण भी प्रमोदके साथ अपनी नगरीमें आ गये । अपनी राजधानीमें पहुंच कर अर्जुन सुभद्राके साथ रमता हुआ दिव्य भोगोंको भोगने लगा। इसके कुछ काल बाद उसके सुभद्राके गर्भसे पुत्र रत्नका जन्म हुआ। वह सब उत्तम लक्षणोंसे युक्त था । उसका नाम अभिमन्यु था।
एक समय दुष्टबुद्धि दुर्योधनने कपटसे पांडवोंको बुलाया और स्नेह-वचनों द्वारा धीर-बुद्धि युधिष्ठिरसे कहा कि कौन्तेय, आइए, हम आप दिल बहलाने के लिए अक्षक्रीड़ा करें-जूआ खेलें । यह कह कर कौरवाग्रणी दुर्योधनने युधिष्ठिरके साथ जूआ खेलना शुरू किया । कपटसे कौरव जो पामे फेंकते थे वे उनके अनुकूल ही पड़ते थे। देख कर ऐसा जान पडता था मानों अच्छी तरहसे सिखाये गये दोनों पासे कौरवोंके आज्ञा-धारी सेवक ही है । और वे जो कभी भीमके हुंकारके मारे इधर उधर जाकर पडते थे उससे ऐसा जान पडता था मानों भीमके नादके डरके मारे वे स्थिर ही नहीं होने पाते; किन्तु इधर उधर जाकर उल्टे पड जाते हैं । यह देख कौरवोंने किसी बहानेसे भीमको महलसे बाहर भेज दिया और उन छलियोंने अब पूरे कपटसे द्यूत-क्रीड़ा आरम्भ की, और थोड़े ही समयमें छली दुर्योधनने छलसे धर्मात्मा युधिष्ठिरको जीत लिया । युधिष्ठिर अपना सर्वस्व हार गये। उन्होंने बाजूबंद, कुंडल, विशाल हार, सोनेके कंकण, धन-धान्य, रत्न-मुकुट आदि और समस्त देश, घोडे, हाथी, रथ, योद्धा वगैरह सब धन-सम्पचि जूआमें हार दी।
यहाँ तक कि सुखको देनेवाली तमाम वस्तुएँ हार कर भी युधिष्ठिरने धूतक्रीड़ा बंद न की । अन्तमें वे अपनी रानियों और प्यारे भाइयोंको भी दाव पर