________________
Annan unna.
तीसरा अध्याय।
rnmmmmmmmmmmmmmmmmin ~ mom mom amonomwwwser sf अपने दोनों हाथोंसे इनके सिर पर 'वीर-पदक' वॉधा था और इनका मेघेनाम रक्खा था। इतना सुन कर पूर्वभवके प्रेमसे वह मानिनी उस सुन्दति और कुन्दके समान स्वच्छ गुणोंवाले जयको देख कर और उनकी तारीफ कर बहुत ही हर्षित हुई।
उसने वरमाला जयके गलेमें डाल दी। उस समय होनेवाले बाजोंके महान शब्दसे दशों दिशायें गूंज उठीं । जान पड़ता था कि वाजोंका शब्द कन्याके अपूर्व उत्साहको दिकन्याओं तक पहुँचा रहा है-उन्हें सुना रहा है । तथा सब लोग एकदम घोषणा करने लगे कि कन्याने बहुत ही अच्छा किया जो जयको वरा; एवं साधुजन उसकी पुरुष-परीक्षाकी योग्यताको देख कर उसे साधुवाद देने लगे। परन्तु अर्ककीर्तिके खोटी सम्मति देनेवाले एक कर्मचारीसे यह सव चातें न सही गई और उसने अर्ककीर्तिको भड़का कर कहा कि महाराज ! अकंपन यदि जयको ही कन्या देना चाहते थे तो उन्होंने हम संबको व्यर्थ ही यहाँ बुला कर हमारा तिरस्कार क्यों किया, जो संसारमें युगों तक व्यापक रहेगा। यह सुन कर अर्ककीर्ति कुछ लजित हुए। उन्होंने अपना मस्तक नीचा कर लिया । यह देख उस कर्मचारीने और भी जोशकी आग फूंकना शुरू किया । वह बोला अकंपनने आपको अपने घर बुलाकर आपके साथमें बड़ी भारी दुष्टता की है। विचारिए तो सही कि कहाँ तो आप चक्रवर्तीके पुत्र श्रीमान् और कहाँ यह जय आपका सेवक । इस वातका अकंपनने कुछ भी सोच-विचार न किया और आपके होते हुए भी आपको छोड़ कर इस सेवकको कन्या दे दी । अकंपनने आपके साथ दुष्टता ही नहीं की, किन्तु भारी नीचता भी की है, जो कि अक्षम्य है।
इस प्रकार भड़कानेवाली वचन-रूप-वायुके द्वारा अर्ककीर्तिकी क्रोधामि खुब ही धधक उठी । वह बोला कि इस दुष्टात्माने मेरे होते हुए भी मुझे छोड़ कर मेरे . सेवकको कन्या दी, यह बड़ा भारी अपराध किया । इसे इसका फल अवश्य ही चखाना चाहिए।
उस वक्त तो पिताजीके भयसे मैने जयको 'वीर-पदक' का प्रदान करना सह लिया था । पर इस समय सभी सौभाग्यको हरनेवाली इस मालाकी क्षतिको मैं क्यों कर सह सकता हूँ। क्रोधके वश हो जानेके कारण अर्ककीर्तिने इस तरह सभी मान-मर्यादा ड़ दी-हेय-उपादेयका ज्ञान उसके हृदयसे कूच कर गया, और वह एकदम