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आठवाँ अध्याय। उसने एक चारणमुनिके मुखसे धर्मका उपदेश सुना और सभी सुख देनेवाले दया धर्मको यथाशक्ति ग्रहण भी किया। इसके बाद पारासर राजाने उसे युवराज बना दिया। सच है कि योग्य पुत्रको पिता और योग्य शिष्यको गुरु अपनी सारी सम्पत्ति दे डालता है, तब युवराज पदकी तो बात ही क्या है।
एक समय पारासर यमुना नदीके किनारे क्रीड़ाके लिए गया था। वहाँ उसने नौकामें बैठी हुई चकोर जैसे सुन्दर नेत्रोंवाली एक मनोरमा कन्याको देखा। उसको देखते ही पारासरका मन मोहित हो गया, वह उस पर निछावर हो गया । और कामासक्त हो वह उसके पास जाकर कहने लगा कि तुम कौन हो ? किसकी पुत्री हो ? वह वोली कि राजन् ! मैं यहीं गंगातट पर निवास करनेवाले मल्लाहोंके अधिपतिकी पुत्री हूँ और मेरा नाम है गुणवती । मैं अपने पिताकी आज्ञासे हमेशा यहाँ नौका चलाया करती हूँ। क्योंकि कुलीन कन्याएँ कभी माता पिताके प्रतिकूल नहीं होती।
___ यह सुन पारासर राजा कन्याकी चाह वश वह उसी समय उसके पिताके , पास गया। पारासरको आता देख धीवरने उसका बड़ा आव-आदरके साथ स्वागत किया, जिससे पारासरको बहुत ही खुशी हुई।
इसके बाद राजाने उस शिष्टाचारीको अपना मनोरथ कह सुनाया कि तुम्हारी गुणवती पुत्रीको मैं अपनी सहचारिणी बनाना चाहता हूँ।
यह सुन धीवरने कहा-राजन् ! इस पतिंवरा कन्याके देनेको तुम्हारे लिए मेरा उत्साह नहीं होता । कारण, तुम्हारे राज-पाटको सँभालनेके लिए गांगेय नाम एक पराक्रमी पुत्र मौजूद है । तब आप ही बताइये कि मेरी कन्यासे जो सन्तान होगी वह गांगेयके होते हुए क्या कभी राज-पाटको भोग सकेगी ? अतः राजन् ! आप इस सम्बन्धकी बातचीत ही मत छेडिए । इस प्रकार उस धीवरने जव युक्तिसे कन्या देनेका निषेध किया तो राजाका मुंह मुरझा गया-चेहरा उतर गया; और आखिर वह अपने घरको चला आया । अपने पिताका मुरझाया हुआ चेहरा देख कर गांगेय वहुत व्याकुल हुआ । वह सोचने लगा कि क्या मैंने इनका कुछ अविनय किया है ? या और किसीने इनकी आज्ञा भंग की है ? या इन्हें मेरी माताका स्मरण हो आया है ? क्यों इनका मुंह कालासा देख पड़ता है । इस प्रकारके ऊहापोहके बाद जब वह कुछ भी निश्चय न कर सका तब उस जयाने एकान्तमें मंत्रीसे