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पाण्डव-पुराण । नेको उद्यत हुए। वे कहने लगे कि विभो ! अब पॉच खींच लो पाँव खींच लो । एवं चामर जातिके देवतोंने वीणा बजा कर मुनिको प्रसन्न किया। उन्होंने सन्तुष्ट होकर विद्याधर राजोंको घोषा, सुघोषा, महाघोषा और घोषवती आदि वीणाएँ दीं। राजन् ! इसी प्रकार आपने भी मुझे प्रसन्न होकर तीन पैंड पृथ्वी दी थी। अव वताइए कि मै तीसरा पैंड किधरसे, नापू । तात्पर्य यह कि अब आप मेरे तीसरे पैंडको भी अवकाश दीजिये । कारण, अब यहाँ कहीं पैर रखनेको अवकाश नहीं सूझता । इतना कह कर क्रोधमें आ बलशाली विष्णुकुमारने राजा बलिको बाँध लिया वह जो मुनियोंको उपद्रच कर रहा था उसको एक मिनटमें अनायास ही वारण कर दिया और योगियोंकी रक्षा करली । वाद उस वली बलिराजाने भी मुनियोंकी रक्षा की
और अधर्मको रोक कर उत्तम रीतिसे धर्मको धारण किया, जो कि उसके योग्य था । इसके बाद संसारमै धर्मके प्रभावको फैलानेवाला वह विष्णुकुमार मुनि अपने स्थानको चला गया ।
पनरथ राजाके वाद क्रमसे पद्मनाभ, महापन, सुपन और कीर्ति, सुकीर्ति, पसुकीर्ति, वासुकि आदि बहुतसे राजा हुए । इसके बाद सांतनु नाम राजा हुआ, जो शक्तिवाला और कौरवों में अगुआ था; पृथ्वीको सुखी करनेवाला था। उसकी प्रियाका नाम था सबकी। वह रामचन्द्रकी सीताकी भॉति सती थी। उसके गर्भसे सांतनु राजाके पारासर नाम एक पुत्र पैदा हुआ, जो बहुत वली था।
रत्नपुरमें जयी जन्हु नाम एक राजा था। वह विद्याधर था। उसके गंगा नामकी एक पुत्री थी । वह पवित्र शरीरवाली और गुणोंकी खान थी । एक समय जन्हुने सत्यवाणी नाम किसी निमित्वज्ञानीसे उसके विवाहके सम्बन्ध पूछा और उसके कहे अनुसार गंगाका व्याह पारासरके साथमें कर दिया। गंगा जैसी पत्नीको पाकर पारासरको बहुत ही हर्ष हुआ। वह मनोहर शरीरवाला तथा कामकी महिमासे भरपूर राजकुमार उसके साथसाथ सुन्दर सुन्दर महलोंमें मनचाही कीड़ा करने लगा। कुछ काल वाद उसके यहाँ पुत्र उत्पन्न हुआ । उसका नाम रक्खा गया गांगेय । वह बृहस्पतिक तुल्य था। धीरे धीरे वह दोजके चॉदकी नाई बढ़ने लगा और क्रम क्रमसे उसने सभी विद्यायें सीख ली । यह धनुपविद्या बहुत निपुण था और चाहे जैसा ही निशाना क्यों न हो, एक मिनटमें ही छेद डालता था । एक दिन पुण्ययोगसे ।