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चौदहवाँ अध्याय। भी पांडवोंके जलनेकी बात सुन कर खेदखिन्न हुई और गुणप्रभा आदि राजपुत्रियोंके साथ रहने लगी । इसके बाद ये ग्यारहकी ग्यारह ही कन्यायें धर्मध्यानमें लीन होकर बत-उपवास वगैरह करने लगी । और राजा, सेठ तथा उन दोनोंकी भार्यायें ये चारों अपनी कन्याओंके ब्याह देनेकी चिंतामें मग्न होकर दुःखसे अपना समय बिताने लगे । ये मधुरभाषिणी कन्यायें सभी पर्वदिनोंमें स्थिरचित्तसे दुष्कर उपवास करती थीं । इसी प्रतिज्ञाके अनुसार इन्होंने एक दिन चतुर्दशीको सोलह प्रहरका उपवास किया और वे एक वनके जिन मंदिरमें-जहाँ किसी तरहका कोई उपद्रव न था-गई । वहाँ उन्होंने धर्म-ध्यान पूर्वक कायोत्सर्ग धर कर रात और दिनको बिताया तथा अपनी आत्माको शुद्ध किया । उस दिन जिन भगवान्, चक्रवर्ती तथा अन्य महापुरुषोंकी फयाओं
और उनके पचित्र जीवन-चरितोंके श्रवण-पूर्वक रात विता कर सवेरे उन्होंने मामायिक आदि क्रियायें की । इस समय उन सबसे श्रीमती गुणप्रभा राजपुत्रीने कहा कि हम लोग आज यहीं पारणा करेंगी । और यदि आज मुनिदानसे हमारा पारणा सफल हो गया तो समझो कि जन्म ही सफल हो गया । तथा एक बात यह है कि मुनिको दान देकर उनके पाससे हम उत्तम तप ग्रहण करेंगी । इसके बाद वह शुद्धमना इस प्रकार भावना भाने लगी कि संसार बड़ा भारी विचित्र है, इसमें मोहके वश होकर बुद्धिमान लोग भी ममत्व करने लग जाते है-इसकी विचित्रतासे अपनेको भूल जाते हैं । फिर भी यहाँ यह स्त्रीपना तो और भी निंद्य है, यह पापके उदयसे प्राप्त होता है। - देखो, कन्याके उत्पन्न होते ही तो माता-पिता संकटमें पड़ जाते हैं । वे उसके जन्मकी खवर पाते ही निसासें डालने लगते हैं और पुत्रकी आशा छोड़ कर निराशाके समुद्रमें गोते लगाने लगते हैं । इसके सिवा जब वह सयानी होती है तब उन्हें उसके विवाहकी चिन्तामें जलना पड़ता है । एवं किसी तरह
आपत्तियोंको सह कर भी वे उसके विवाहसे पार पड़े तो उन्हें इस बातकी चिन्ता लगी रहती है कि कन्याको पतिके समागमसे सुख होगा या नहीं । सुख हुआ तब तो अच्छा ही है; अन्यथा कहीं पापके उदयसे वर दुष्ट, व्यसनी, झूठा, लवार, गैरसमझ, अविनयी, अन्यायी, व्यभिचारी, रोगी, दरिद्री, परस्त्री-लंपट, क्रोधी, अधर्मी और दुर्बुद्धि हुआ तव तो उस बेचारीके दुःखका पार ही नहीं रह जाता। फिर उस स्त्रीके दुःखोंको-जिसको कि ऐसा पति मिला हो-कौन जान