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पाण्डव-पुराण |
मनको स्थिर करो । सम्भव है तुम्हारे पुण्यसे पांडव अवश्य ही जीवित होंगे क्योंकि ऐसे महान पुरुषोको मनुष्य तो क्या देवता भी नहीं मार सकते हैं । यह सुन कर कान्ति-हीन और खेदखिन्न वसन्तसेना आर्तध्यान से संतप्त हो उठी; परन्तु उसने अपने मनरूप मत्त गजेन्द्रको रोका और अपने पूर्वकर्मकी निंदा करती हुई वह कठोर तप तपने लगी ।
इधर प्रतापी पांडव कुन्ती सहित वहाँसे चल कर नाना विनोदोंमें मस्त हुए और प्रकृतिकी सुन्दरताको देखते हुए त्रिशंग नाम नगरमें आये । यह नगर वड़ा सुंदर था । इसके महल - मकान इतने भारी ऊँचे थे कि उनके शिखरों पर आकर चन्द्रमा विश्राम करता था । यहाँका राजा चंडवाहन था । उसने अपने भुजा-रूप दंडोंके द्वारा बड़े बड़े वैरियोंका सर्व नाश कर दिया था, अतः वे जायें उसका भूषण हो गई थीं । उसकी प्रिया विमलप्रभा थी । वह नित्य आनन्दित रहती थी । उसका शरीर कान्तिका पुंज था, निर्मल था और उसके पॉव अतीव सुन्दर थे | चंडवाहन और विमलप्रभा दस पुत्रियाँ थीं । वे सब सुशिक्षिता, विदुषी थीं । उनमें सबसे बड़ी पुत्रीका नाम था गुणप्रभा । वह गंभीर थी और गुणज्ञा थी । वाकीकी और नौ पुत्रियों के नाम ये थे । सुप्रभा, ह्री, श्री, रेति, पद्मा, इन्दीवरा, विश्वा, ओश्चर्या, अशोकी । ये सभी गुणवती परम शोभाकी स्थान थीं, रूप-सौभाग्य से सुशोभित थीं और यौवन अवस्थाको प्राप्त हो चुकी थीं । एक दिन उन सबको यौवन अवस्थामें देख राजाने एक निमित्तज्ञानीसे पूछा कि इनका स्वामी कौन होगा । निमित्त ज्ञानीने निमित्तज्ञानसे कहा कि महाराज, इनका वर युधिष्ठिर नाम पांडव होगा । यह बात सुन कर उन गुणवती कन्याओंने युधिष्ठिरको ही अपना पति निश्चित किया और वे सुखसे वहीं रहने लगीं । परन्तु कुछ दिनों बाद उन्हें पांडवोंके सम्बन्धमें कुछ और ही बात सुन पड़ी, जिससे वे बहुत ही दुःखी हुई ।
यहीं एक सेठ और था । उसका नाम प्रियमित्र था । वह धनी था, श्रीमान् था । मित्र (सुरज) के समान उसकी प्रभा थी । मित्रोंके द्वारा वह वृद्धिंगत था । उत्तम गुणवालोंमें श्रेष्ठ था । उसकी मियाका नाम सौमिनी था । उनके नयनसुन्दरी नाम एक कन्या थी । वह मृगाक्षी थी, उसका मानस बहुत ही निर्मल था । वह बड़ी सुन्दरी थी, गुणोंकी खान थी । राजाकी तरह सेठने 'इसको भी निमित्तज्ञानीके वचन से युधिष्ठिरको देनी कर रक्खी थी । अतः वह