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चौदहवाँ अध्याय ।
२१९ सोच कर जब यह दीक्षा लेनेको तैयार हुई तब इसके पिता आदिको बड़ा दुःख हुआ और संसारसे भयभीत हुई वसन्तसेनाको उन्होंने बहुत समझाया कि वेटा, पत्तोकी नॉई बड़े कोमल तुम्हारे हाथ है, चॉदके जैसा सुहावना तुम्हारा मुँह है और कमलके जैसे कोमल पाँव हैं । तात्पर्य यह कि तुम्हारा सारा शरीर ही अत्यंत कोमल है; सुकुमार है । फिर ऐसे कोमल शरीरसे इतना भारी दुष्कर तप भला कैसे होगा। क्या कहीं मछकी भी अपने दाँतोंसे लोहेके चने चबा सकती है । अथवा हे मधुरभाषिणी पुत्री, यदि तुझे दीक्षा ही लेना है तो कुछ दिन और ठहर जा और किसी अर्जिकाके पास सच्चे शास्त्रका अभ्यास कर । कदाचित् तेरे पुण्य-प्रतापसे ही युधिष्ठिर निर्विघ्न हो; उनके ऊपर आई हुई आपत्ति टल गई हो । तू इतनी जल्दी क्यों करती है । देख, ऐसे पुण्यात्मा पुरुषोंकी थोड़ी आयु नहीं होती; वे दीर्घजीवी होते हैं । यदि वे जीवित होंगे तो सुवासिनी पुत्री, तू उनकी पत्नी होकर उनके साथ आनन्द-चैनसे घरगिरस्तीके सुखोंको भोगना
और नहीं तो दीक्षा लेकर तप तपना । पर अभी कुछ दिनोंके लिए मेरा कहना मान जा और दीक्षा मत ले।
इस प्रकार माता पिताके समझानेसे वसन्तसेना समझ गई और इसने कुछ दिनके लिए दीक्षा लेनेका अपना इरादा बदल दिया । परन्तु यह हमेशा मेरे पास आकर कायक्लेश करके शरीरको सुखाया करती है । यह संयम पालती है, रसपरित्याग तप तपती है और कायोत्सर्ग करके कठोर तप किया करती है । यह साध्वी है-शीलवती है । इसका चरित बिल्कुल निर्दोष है । एवं यह शुद्ध सिद्धान्तको जाननेके लिए सदा अच्छे अच्छे शास्त्रोंको सुना करती है । इधर वसंतसेनाने मनमें सोचा कि कहीं यही सुगुण कुन्ती और ये पाँचौ पांडव ही तो नहीं हैं। आखिर वह अपनी उत्सुकताको न दाव सकी और वह बोली कि गुणोंकी खान पुण्यात्मा और चमरके जैसे घालोंवाली महाभाग देवीजी, आप कौन हैं और सर्व-गुण-सम्पन्न ये पाँवों कौन हैं। विचार-शील माताजी, आप मुझसे सव बातें कहें । कुन्ती बोली कि बेटी, सुनो मैं तुम्हें सव वातें वताये देती हूँ।हम सब ब्राह्मण हैं-ब्रह्मविद्याके जानकार दैवज्ञ हैं । इस लिए पुत्री, मैं जो कुछ कहूँ तुम उस पर पूरा भरोसा करना । अपनी सब बातें कह कर कुन्तीने वसन्तसेनासे हंस कर कहा कि पुत्री, तुम पवित्र हो, पुण्यात्मा हो, सुन्दरी सुहावनी हो, गुणज्ञा और गुणाधार हो, उत्तम और महोदया हो, अत: जन्मपर्यन्त शीलको धारण करो और दीक्षाकी आशा छोड़ कर श्रावकके व्रतोंमें