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पाण्डव-पुराण । ऐसी विषम यौवन अवस्थामें जिसमें कि कामका खूब जोर रहता है, कारणके विना वैराग्य नहीं हो सकता । अतः इसके वैराग्यका कोई न कोई कारण अवश्य होना चाहिए। यह रंगीन वस्त्र पहिने हुए है, अतः अभी दीक्षित नहीं हुई है। परन्तु फिर भी यह स्थिरमना आपके पास वनमें किस कारणसे रहती है। उसके रूप-सौंदर्यको देख कर कुन्तीकी इच्छा उसे अपनी वधू बनानेकी हुई । अत एव उस साध्वीने उस चंचल नेत्रोंवाली कन्याको अपने मनोहर चक्षुओंकी एक टक दृष्टि से देखा । उधर वह कन्या भी अपनी चंचल दृष्टिसे बैठी बैठी चुपचाप युधिष्ठिरको देख रही थी । और युधिष्ठिर भी कन्याके मुख-कमलकी ओर दृष्टि डाल रहे थे। फल यह हुआ कि अपनी अपनी दृष्टिके साथ युधिष्ठिरने कन्याको और कन्याने युधिष्ठिरको अपना अपना मानस दे दिया। वे चंचलात्मा मन ही मन एकमें एक खूब मिल गये । केवल शरीरसे एक दूसरेका सेवन और वचनसे आपसमें बातचीत न कर सके । इतनेमें कुन्तीके प्रश्नोंके उत्तरमें अर्जिकाने कहा कि देवी, इसका चरित वड़ा विचित्र है । मैं थोड़ेमें कहे देती हूँ। तुम ध्यान देकर सुनो।
इस पुरीका नाम कौशाम्बी है । इसमें उत्तम उत्तम जनोंका निवास है। यह उनके धैर्य, चातुर्य और उत्तम आचरणसे शोभित है । यहाँका राजा विध्यसेन है । वह पुण्यात्मा है और उसका मुँह चंद्रमाके जैसा है। उसकी रानीका नाम विंध्यसेना है । वह सदा प्रसन्नचित्त रहती है, अत एव उन दोनोंमें बड़ी गाढ़ी प्रीति है । उनके एक पुत्री है । उसका नाम वसंतसेना है । वह सर्वगुण-सम्पन्न, सुन्दरी, सुन्दर नेत्रोंवाली, साध्वी, कला-विज्ञानमें पारंगत यही वह कन्या है । राजाने विचार करके इसके सम्बन्धमें यह निश्चय कर लिया था कि भाँति भॉतिके भूपोंसे विभूषित इस सुन्दरी कन्याका व्याह मैं युधिष्ठिरके साथ करूँगा। परन्तु थोड़े ही समयमें लोकमें फैलती हुई यह अफवाह सुनी गई जो कि बहुत ही दुःख देनेवाली है । वह यह कि कौरवोंने पांडवोंको महलमें आग लगा कर जला दिया है। उसे सुन कर वसन्तसेनाने मनमें सोचा कि पतिका जल-मरना बहुत ही बुरा हुआ । परन्तु इसमें मेरे पापके उदयके सिवा और कुछ भी कारण नहीं है । इस चतुराने तव इस बात पर बहुत विचार कर स्थिर किया कि मै अब युधिष्ठिरके सिवा और किसीको अपना स्वामी नहीं बनाऊँगी । वह जल चुके हैं, अव मिलनेके तो है नहीं, अतः मैं अव उत्तम तप ही तपूँगी। जिससे अब आगे और किसी भवमें ऐसे निंद्य कर्मका बंध न हो । यह