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चौदहवाँ अध्याय।
२१७ की । क्योंकि पुरुषोंको पवित्र जीवन प्रभुकी पूजाके फलसे ही मिलता है। उन्होंने सैकड़ों स्तोत्रों के द्वारा स्तुति कर मस्तक झुका कर प्रभुको प्रणाम किया। इसके वाद सच्चे धर्मको चाहनेवाले उन पांडवोंने गुण-गौरवशाली, गंभीर और सम्यरज्ञानी गुरुकी वन्दना करके उनसे जिन-पूजाके फलको पूछा । उत्तरमें मुनि वाले कि भन्य, सुनिए मैं पूजाके फलको कहता हूँ, अत: इधर ध्यान दीजिए। जो भव्यजन सदा बड़ी भक्तिके साथ जिनपूजा करते हैं उन चतुर पुरुषोंको जिनेन्द्र देवकी पूजासे और तो क्या परम पद भी मिल जाता है, उनके सभी दुःख दूर हो जाते हैं और वे भात्मिक सुखको भोगने लगते हैं। उन्हें फिर कभी दुःख, कष्ट आदिका सामना नहीं करना पड़ता।
देखो, जो जिन भगवानके चरण कमलोंके आगे जलधारा देता है उसकी कर्मरज उपशान्त हो जाती है । जो सुगन्धित चडन चढाता है उसे सुगन्धित शरीरका लाभ होता है। अक्षत चढ़ानेवालेको अक्षय सुख मिलता है । जो पुष्पोंसे पूजा करता है उसे स्वर्गमें दिव्य फूलोंकी मालायें पहिननेको मिलती हैं । नैवेद्य पूजाका फल धन-दौलतकी प्राप्ति और दीप पूजाका फल शरीरमें दीप्ति होना है। अगुरु-चंदनकी धूपसे जो प्रभुकी पूजा करता है उसे नेत्रोंको सुहावना शरीर मिलता है । फलकी पूजाका फल यह है कि उसे मोक्ष लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है । और अय॑से जो पूजा की जाती है उसका फल होता है देवों द्वारा पूज्य अनर्घपदका लाभ । इस तरह मुनिराजके मुख-कमलसे पूजाके फलको सुन कर महान् श्रीशाली और क्रोध आदि कषायोंसे रहित अत एव निर्मल-चित्त, श्रावकव्रती पाडव हर्षसे गद्गद हो गये। उनके रोमाञ्च हो आये ।
इसके बाद पांडवोंने नाना लक्षणोंसे लक्षित एक अर्जिकाको देखा । वे उसे नमस्कार कर उसके आगे बैठ गये और कुन्ती एक ओर बैठ गई। वहीं एक फन्या वैठी हुई थी। वह सुंदर लक्षणोंसे युक्त थी । उसके नेत्र चंचल थे और उनकी सुन्दर पलकें थीं। उसकी चितवन मनको मुग्ध कर देती थी । चंचलता, प्रेम
और क्षमाका वह भंडार थी। प्रोषधसे उसका शरीर बहुत कृश हो रहा था । वह अच्छे सुशील रक्षकों द्वारा रक्षिन थी । लिखना पढ़ना उसने अभी · आरंभ ही किया था। उस सुन्दरी कन्याको देख कर कुन्तीने अर्जिकाको नमस्कार कर पूछा कि आर्ये, धर्मध्यानको धारण करनेवाली और धर्म-कर्ममें धुरीण यह साध्वी कन्या जो तप तपती है, इसके तप तपनेमें कारण क्या है। क्योंकि
पामग-पुराण २८