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________________ पाण्डव-पुराण । उनसे उनके ससुर वर्णने पूछा कि प्रभो, आप कौन हैं, आपके साथ यह कौन है ? और ये दूसरे चार पुरुष कौन हैं ? आप सब यहाँ आये कहाँसे हैं ? वर्णके इन प्रश्नों के उत्तरमें युधिष्ठिरने कहा कि महाराज, आप हमारे कर्म-कौतुककी बात - सुनिए । हम पाँचों पांडु पण्डितके पुत्र पांडव हैं, हमें कौरवोंने जला कर मारना चाहा था और हमारे महलमें आग लगा दी थी । परन्तु पुण्ययोगसे हम वहाँसे निकल आये-हमें कोई कष्ट नहीं हुआ, और अब हम द्वारिका पुरीको जा रहे हैं । द्वारिकाके राजा समुद्रविजय हमारे मामा हैं और उनके पुत्र नेमिनाथ तीर्थकर तथा कृष्ण, बलदेव हमारे वन्धु हैं। उनके दर्शनोंकी हमें बहुत ही उत्कंठा लग रही है । इस लिए यहाँसे हम द्वारिकाको जायेंगे । इस प्रकार अपनी सारी वातें कह कर वे धर्मात्मा और सत्यवादी कमलाको वहीं छोड़ कर वहॉसे चल दिये। इसी प्रकार वे सदाचारी और विचारशील तथा परमोत्साही पांडव और भी जहाँ जहाँ गये वहाँ वहाँके माननीय पुरुषोंने उनका खूब सत्कार किया । वे जहाँ पहुँचते थे पुण्योदयसे उन्हें वहाँ सब कुछ सामग्री मिल जाती थी । आसन, शयन, सवारी, आहार वगैरह सब कुछ लेले कर लोग स्वयं ही उनके सामने आ जाते थे । उनका विक्रम दशों दिशाओंमें व्याप्त हो रहा था। रास्तेमें उन्हें जहाँ जहाँ जिनमंदिर मिलते थे उन्हें वे पूजते हुए आगेको जाते थे। इस प्रकार धीरे धीरे वे वृक्षोंसे परिपूर्ण और शोभाके स्थान पवित्र पुण्यद्रुम नाम वनमें पहुँचे । उस वनके ठीक वीचमें बहुतसे जिनमंदिर थे । . वे खूब लम्बे-चौड़े पूरे विस्तारको लिए हुए थे, शरद कालके मेघों जैसे स्वच्छ थे, आकाश तक ऊँचे तथा सोनेके सुन्दर कलशोंसे सुशोभित थे । दुंदुभियों के गंभीर शब्दोंसे वे शब्द-मय हो रहे थे और जय शब्दोंका उनमें कोलाहल हो रहा था । वे निर्मल और विशाल थे, भाँति भाँतिके भूषणोंसे विभूषित भव्योंसे सुशोभित थे और जीवोंको नित्यानंदके दाता थे । उनको दूरसे देख कर धर्मामृतके पिपासु पांडव प्रसन्न होते हुए उनकी ओर गये । वहाँ चित्रोंसे चित्रित भीतोंवाले उन जिनालयोंको देख कर उन्होंने हर्षके साथ, माता-सहित उनमें प्रवेश किया। सोनेके घरोंसे सुसज्जित उन सुन्दर जिनालयों में प्रवेश कर । उन्हें अपूर्व आनंद हुआ। इसके बाद जब उन पुण्यात्माओंने उन मंदिरों में विराजमान सोने और चाँदीकी अतिशय रूपवाली, पवित्र परमोदयवाली प्रतिमाओंका दर्शन किया तब उनके आनंदकी कुछ सीमा ही न रह गई । इसके बाद उन्होंने फल-फूल आदि द्रव्योंके द्वारा जिनबिम्बोंकी अतीव भक्ति-भावसे पूजा
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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