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चौदहवाँ अध्याय ।
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और मनोहर, उत्कृष्ट फल प्रभुकी भेंट रक्खे । तात्पर्य यह कि उसने आठ द्रव्योंसे प्रभुकी खब भक्तिके साथ गुण गा-गा कर पूजा की । । ) इसके बाद वह जिनभवनसे वाहिर निकली और वहाँ उसने पवित्र पांडवोंको
देखा। उनमें तेजशाली और रूप-सौन्दर्यशाली युधिष्ठिरको देख कर वह उनके अतिशय सुन्दर रूप पर मोहित हो गई और मन-ही-मन विचारने लगी कि यह कौन है ? सुर है या सुरेश, चॉद है या सूरज, नगेन्द्र है या किन्नरदेव । ये मनुष्यसे देख पड़ते हैं पर देवोंके जैसी ही इनकी प्रभा है, अतः सुरके जैसे देख पड़ते हैं। लेकिन वास्तवम ये हैं कौन । इतने विचारके बाद नेत्रोंके पलक झपकनेके कारण उसने पका निश्चय कर लिया कि यह कान्तिशाली कोई पुण्यात्मा पुरुष ही हैं। इन पुण्यात्माने मेरे मनको विल्कुल ही चुरा लिया है, अतः मैं इनके विना विल्कुल ही अधीर हूँ । अब इन प्राणोंकी मैं मनके विना कैसे रक्षा करूंगी। इस प्रकार वह कामके वाणों के द्वारा विल्कुल ही जर्जरित हो गई, जिससे उसे वहाँसे घर जाना तक मुश्किल हो गया। वह पैर रखती थी कहीं, पर वह जाके पड़ता था और ही कही । क्योंकि उसका मन विल्कुल ही उसके कामें न रह गया था । वह जैसे तैसे सखियोंके सहारे, उनकी जबरस्तीसे महल तक पहुंची । वहाँ वह सालसा न तो कुछ खाती थी
और न वोलती-चालती ही थी; न हँसती थी और न किसीकी ओरको देखती थी। किन्तु खेदखिन्न होकर कभी रोने लगती और कभी सो जाती, कभी उठ बैठती और कभी बैठे बैठे हँसती हुई स्वयं ही गिर पड़ती। कमलाकी ऐसी अवस्था देख कर उसकी माताने सखियों वगैरहसे पूछ कर उसकी ऐसी बुरी हालत होने के कारणको जान लिया। और फिर जाफर उसने सव हाल अपने स्वामी वर्णसे कह सुनाया। सुन कर वर्णने उसी समय 'मंत्रियोंको बुलाया और उन्हें पुत्रीकी क्लेश-मय दशा बता कर उसने पांडवोंको बुला ले आनेके लिए भेजा। पांडव आकर राजासे मिले । राजाने भोजन, वस्त्र, आभूपण आदिसे उनका जैसा चाहिए उचित आदर किया । अत: वे प्रेमके वश हो वहीं ठहर गये। इसके बाद वर्ण राजाने युधिष्ठिर महाराजसे कन्याके लिए प्रार्थना की और उनकी अनुमति पाकर शुभ मुहूर्तमें विधिपूर्वक उनके साथ कमलाका प्रेमविवाह कर दिया और साथमें उन्हें बहुत धन भी दिया।
कमलाका पाणिग्रहण कर पांडव भी उसके साथ दिव्य भोगोंको भोगते हुए मावा और भाइयों सहित वहॉ कितने ही दिनों तक रहे। इसी बीच में एक दिन