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________________ दसवाँ अध्याय । १३५ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww गये स्वरोंकी नकल ही उतार रही है । कहीं पद-पद पर कामनियाँ मधुर गीत गा रही हैं। कहीं अपनी तरल तरगोंके शब्द द्वारा किंनरियोंके नादको भी जीत लेनेवाले तालाव देख पड़ते हैं । ऐसे मनोहर वनमें मद्री रानीके साथ साथ पद-पद पर भामनियोंकी नृत्य-कलाको देखते हुए पांडने बड़े सुख-चैनसे समय विताया, और वहाँ क्रीडा की। एवं उसने मनोहर भोगों और रति-कीडासे उत्पन्न हुए हास, रस, विलासोंके द्वारा मद्रीको खूब रमाया; उसके साथ खूष ही क्रीड़ा की। इसके सिवा उसने चन्दनके रससे, अगुरुद्रवके मर्दनसे, सुगंध द्रव्यके निक्षेपसे, स्त्रियोंके कटाक्षमय निरीक्षणोंसे तथा उनके सुन्दर आलापोंसे अपने चित्तको बहुत ही बहलाया; परंतु उसे कहीं भी सन्तोष न हुआउसकी विषय-तृष्णा बढ़ती ही गई । कहीं वह वावड़ियों में जाकर स्त्रियोंके साथ फूलोंके तुल्य कोमल और सुगन्धित चन्दनके जलकी उछलती हुई दोसे क्रीड़ा करता था और कंठ तक पानीमें जब चैठ जाता था तव ऐसा जान पड़ने लगता था मानों तियोंके मुखरूप चॉदको ग्रसनेके लिए राहु ही आ गया है । कुछ देरमें जब वह क्रीडा करता करता थक गया तव उसने वहाँसे चलनेकी इच्छा की । वहाँसे चलकर उसने बहुतसे लता-मंडपोंको देखा । एक लता-मंडपमें वह स्थिर-चित्त होकर वैग भी। वह लता-मंडप गोल था और भौरोंके सुन्दर शब्दोंसे गूंज रहा था । उस लता-मंडपमें उसने एक फूलोंकी शय्या वनवाई और वह कामासक्त हो मद्री-सहित उस पर बैठ गया । वह मद्रीमें इतना आसक्तचित्त हो गया कि उसके मुख-कमल परसे अपना मुख-कमल हटाना ही न चाहता था। उसने स्थूल और कठोर कुचोंवाली मद्रीके साथ वहाँ भी खूब कामक्रीडा की। इससे उसका मदन-ज्वर उतर गया। इसी समयमें उसने मंडपके पास ही क्रीड़ा करते हुए एक हरिणको देखा। वह अपनी हरिणीके साथ काम-क्रीड़ा कर रहा . था । उसे देखते ही राजाने धनुष पर वाण चढ़ाया और उसके ऊपर छोड़ दिया। हरिण उस समय कामासक्त हो रहा था । वाणके लगते ही वह चिल्लाकर जमीन पर गिर पड़ा । उसे बड़ी वेदना हुई । वह मर गया । ग्रन्थकार कहते हैं कि इन भोगोंको धिक्कार है जिनके कारण लुब्धकोंकी ऐसी गति होती है। इसी समय आकाशवाणी हुई कि "भूपाल, ऐसा दुःखदाई काम करना तुम्हें उचित नहीं था। विचारिए कि यदि इन निरपराधी मूक और वनमें रहनेवाले हरिणोंको, राजा ही मारने लगे तो फिर संसारमें उनकी दूसरा कौन रक्षा करेगा । बुद्धिमानोंको तो इन्हें अपराध करने पर भी नहीं मारना
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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