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________________ पाण्डव-पुराण । nmAVAAAAAAA Ann चाहिए, तब फिर निरपराधियोंकी तो बात ही क्या है । निरपराधियोंको दैवके सिवा और कोई नहीं मारता है । राजन् , यह प्रसिद्ध है 'है कि राजा लोग शिष्टोंको पालते हैं और दुष्टोंका निग्रह करते हैं । यह ठीक है; परन्तु न जाने आप इस युक्ति-युक्त वातको भी क्यों विफल कर रहे हैं । भला देखिए तो सही कि ये गरीब हरिण न तो किसीको मारते हैं, न किसीका धन चुराते है तथा न किसीके रखे हुए अन्न और घासको ही खाते हैं। फिर भी इनके साथमें राजा लोग निर्दयता करें और इन्हें मारें यह उनका कार्य वड़ा निंद्य है । इस अपराधसे परलोकमें उनकी क्या गति होगी; वे कहाँ जायगे ? जरासा चिउँटीके काटने पर अपने शरीरमें जो वेदना होती है उसे जानते हुए भी आपने इस गरीव मृगको मार डाला, यह कहॉ तक उचित था । राजन् , ऐसे जीवोंके घातसे केवल पाप ही होता है । इसलिए हिंसा तो भूलकर भी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि हिंसा सर्वत्र दुःख ही देती है। और जो अधर्मी हिंसामें भी धर्म मानते हैं वे गायके सींगोंसे दूध या आगसे कमलकी उत्पत्ति चाहते हैं; विष खाकर जीना और सॉपके मुंहसे अमृत चाहते हैं; एवं वे डूबते हुए सूरजसे दिनकी और शिला पर बीज बोकर अन्नकी आशा करते है। यह जानकर राजालोगोंको दया करना चाहिए । दया सुखको देनेवाली है और दयासे जीव संसार-समुद्रको पार कर जाते हैं।" इस प्रकार आकाशवाणी सुनकर वह दयालु राजा क्षणभंगुर शरीर-भव-भोगोंसे बड़ा विरक्त हुआ । वह सोचने लगा कि कामकी वाञ्छासे विद्वान् लोग व्यर्थ पाप नहीं करते; क्योंकि पापसे आत्माकी केवल दुर्गति ही होती है । मैं सुखको चाहता हूँ, फिर अचम्भेकी बात है कि व्यर्थ ही प्राणियोंके घातमें क्यों प्रवृत्ति करता हूँ। इससे मुझे कुछ लाभ नहीं और न इससे मेरे उद्देश्यकी ही सिद्धि होती है। और जिस राज्यमें जीवोंके घातसे पाप ही पाप होता है उस राज्यसे भी मुझे क्या मिलना है। सच तो यह है कि जीवोंको संसारमें जितने कुछ दुःख होते है वे सब विषयकषायोंको पुष्ट करनेके लिये ही होते हैं। अतः यह सब विषय-रूप मांस खानेका ही दोष है । हे जीव, इसको तू प्रत्यक्ष ही क्यों नहीं देख लेता। आत्मन, तूने यह राज-काज पहले भी बहुत वार भोगा है और फिर भी त उसीको भोगता है। विचार तो देख, कि भला कोई बुद्धिमान् अपनी सूंठनको भी दुवारा खाता है? एक वात यह भी है कि यह जीव विषयोंको चाहे जितना ही क्यों न भोगे, पर इनसे इसे कभी संतोष नहीं हो सकता । विचारनेकी बात है कि शरीरोंक
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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